बुधवार, 28 दिसंबर 2016

स्व का रहस्यमय जीवन



एंड्रॉयड जोन्स द्वारा

यह आध्यात्मिक जीवन का रहस्य है: यह समझाना कि मैं आत्मा हूँ, शरीर नहीं हूँ, और यह संपूर्ण ब्रम्हांड अपनी सभी गतिविधियों, अच्छाईयों - बुराईओं के साथ केवल चित्रों की एक श्रृंखला है , जिसका मैं साक्षी मात्र हूँ।
- स्वामी विवेकानंद


पिछले लेख में हमने देखा कि अस्तित्व में होने वाली अनुभवक्रिया के परिणामतः स्व या स्वयं उभरता है।  अनुभवक्रिया अस्तित्व में एक लय या नाद की तरह है, पानी पर लहरों के उतार  चढ़ाव की तरह है। स्व भी इसकी एक लहर है, और कुछ नहीं, ज़रा सा बदला रूप है।  सारांश में, स्व अस्तित्व ही है , बाकी सारी चीजों की तरह .... तथापि यह अस्तित्व का अत्यधिक शुद्ध रूप है , अन्य रूपों की तुलना में। यह कह सकते हैं कि यह अस्तित्व से बस एक ही कदम दूर है।



स्व का भी अनुभव किया जा सकता है , अन्य चीजों की तरह।  स्व का अनुभव करना वास्तव में अद्भुत है।  यह ज्ञाता का आत्मबोध है , आत्मानुभव है। आनंदमयी संवेदना है।  अस्तित्व को यह पसंद है।  यह अनुभव आत्मज्ञान या आत्मचेतना भी कहलाता है।  आजकल इसे सिर्फ चैतन्यता भी कह दिया जाता है।  इसका अर्थ बदलता रहता है।  इस शब्द के साथ समस्या यह है कि इसको एक साथ एक संज्ञा, क्रिया और विशेषण के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है! यह भ्रान्तिजनक हो जाता है।  संज्ञा के रूप में यह स्व है (ज्ञाता या अनुभवकर्ता), क्रिया के रूप में यह अनुभव करने की क्रिया है (जैसे की, किसी चीज़ की चेतना होना) और विशेषण के रूप में यह किसी की विशेषता हुई।  इसे साक्षीभाव या फिर केवल साक्षी भी कह देतें हैं।

ब्रह्मांड वास्तव में स्व है। स्व के अलावा और कुछ नहीं है। जैसे मिट्टी से बने विभिन्न बर्तन मिट्टी ही होते हैं, एक ज्ञानी के लिए सबकुछ स्व ही होता है।
- आदिशंकर , आत्मबोध ४८ 


स्व लिए कई शब्द प्रयोग किये जाते हैं।  इनमे से कुछ प्राचीन हैं, लुप्त होते जा रहें हैं या फिर उनके कई अर्थ और पर्याय होते हैं।  जैसे भी हो, मुझे लगता है उनका अर्थ बहुतकुछ यहाँ वर्णित अर्थ से मिलताजुलता है।  प्राचीन होने के कारण और लुप्त संस्कृतियों से संबंधित होने के कारण , इन शब्दों के अर्थ खो गये हैं या फिर उनकी कुछ भी व्याख्या की जा सकती है [१]।  यह संकट के लक्षण हैं, क्योंकि फिर आपको "विशेषज्ञों" पर निर्भर होना पड़ता है , जो उन शब्दों का "सच्चा" अर्थ जानने का दावा करते हैं।  जैसे की हम पहले चर्चा कर चुके हैं, यह केवल मान्यताओं को जन्म देता है, और अनुपयोगी सिद्ध होता है। जो भी हो , यदि आपको कोई और शब्द पसंद है तो स्व को वैसा परिभाषित कर लें और पढ़ते रहें। किसी फूल का नाम बदल देने से उसकी सुगंध नहीं बदल जाती।

भौतिकज्ञ इसको प्रेक्षक या चेतन्य प्रेक्षक भी कहते हैं।  जिसका अर्थ है कि  प्रयोग का कोई  अनुभवकर्ता होता है, जिसके बिना प्रयोग संभव नहीं है और उसका कोई परिणाम नहीं निकलता [२]।  अचैतन्य प्रेक्षक एक संगणक हो सकता है , जो कि प्रयोग का सारा लेखाजोखा अंकित कर लेगा , किन्तु उसका कोई निष्कर्ष नहीं होगा, उसमे कोई सूचना नहीं होगी , और संगणक या अन्य यंत्रो को कोई ज्ञान नहीं होगा।  एक चेतन्य प्रेक्षक ज़रूरी है।  चेतन्य प्रेक्षक प्रमात्रा यान्त्रिकी का केंद्रीय विषय है , जो अब तक का सबसे सफल वैज्ञानिक प्रतिरूप है। तो सभी वैज्ञानिकों पर भौतिकवादी होने का आरोप लगाना ठीक नहीं होगा, वास्तव में उच्चश्रेणी के वैज्ञानिक भौतिकवादी नहीं हैं [३]।

एक रहस्यवादी और एक भौतिकशात्री एक ही निष्कर्ष पर पहुंचते हैं; एक अंतर्क्षेत्र से शुरू करके , और दूसरा बाहरी दुनिया से। उनके विचारों के बीच सामंजस्य प्राचीन भारतीय ज्ञान की पुष्टि करता है कि ब्रह्म-परमास्तित्व और आत्मा-अंतरस्तित्व एक ही है। 
- फ्रिटजॉफ काप्रा , भौतिकी का ताओ : आधुनिक भौतिकी और पूर्वी रहस्यवाद के बीच की समानताओं की एक खोज (१९७५), उपसंहार, पृ. ३०५ ।

स्व क्यों है?

स्व यहाँ क्या कर रहा है? यह मेरे लिए एक पहेली है। कुछ लोग कहते हैं कि "क्यों" वाले सवाल नहीं पूछना चाहिए, चीजें सिर्फ हैं। यह एक पहेली है, क्योंकि अनुभवक्रिया स्व को किसी जादूमंतर से नहीं उत्पन्न कर सकती (या शायद ये मेरी बस मान्यता हो)। तो स्व का कारण अस्तित्व की कोई अतिविशेष क्षमता होगी।

अस्तित्व के ऐसे गुण का मैं केवल अनुमान लगा सकता हूँ।  ऐसा लगता है कि अनुभवक्रिया के दौरान , अस्तित्व का दृष्टिकोण ज़रा सा स्थानांतरित हो जाता है, जिससे ऐसा आभास होता है की अनुभवक्रिया अस्तित्व से पृथक है। यह प्रक्रिया अस्तित्व की एक छाया रचती है, जो अब स्वयं को उस दृष्टिकोण से देख रही होती है। एक स्व का जन्म होता है जो अनुभवक्रिया का अनुभवकर्ता है।  जब अस्तित्व स्वयं को अनुभवक्रिया के रूप में देख लेता है , वह प्रसन्न हो जाता है , और स्व अस्तित्व में फिर विलीन हो जाता है। आवश्यकता पड़ने पर वह वापस आ जाता है, जब भी अस्तित्व को अनुभवक्रिया का स्वाद लेना होता है।  स्व के रूप में , अस्तित्व परमपूर्णता से ज़रा कम हो जाता है , किंचित अशुद्ध।  यह इस अवस्था में अधिक समय नहीं बिताना चाहता , फिर पूर्ण होना चाहता है।

यदि आपको लगता है कि यह सब निरर्थक रहस्यवादी बातें हैं , तो आप बिलकुल सही हैं। रहस्यवाद के देश में सब चलता है।  तो स्व की क्रियाविधि की चिंता न करें , यह क्या है ये जानना अधिक महत्वपूर्ण है।  ये भी एक पहेली है - क्यों इतने कम लोगों को पता है कि उनके मूल में कुछ स्व नाम की चीज़ भी है।  उनको अपने स्व और उसके स्वभाव का पता नहीं है।  यह परम अज्ञान है। यह महान शिक्षकों का दावा है कि इस तरह की अज्ञानता सब दुखों की जड़ है।  यह मेरा अनुभव है (जो आप से अलग हो सकता है), कि केवल स्व को जानने से सभी दुखों का रातोंरात अंत नहीं हो जाता।   यह कोई जादू नहीं है।  किन्तु स्व का रहस्य जानना आवश्यक है, यदि आप अपने सुख और मुक्ति के हृदयपथ पर प्रगति करना चाहते हैं।  तो आत्मज्ञान से शुरू करें।

मैं कौन हूँ?

यदि कोई अपने पूरे जीवनकाल में एक बार भी यह सवाल नहीं करता है तो वह एक गहन अज्ञान में है। केवल कोई प्रश्न ही ज्ञान की ओर ले जा सकता है। यदि आप ज्ञान के पथ पर अग्रसर हैं, तो यही सवाल पूछना चाहिए। यह आत्मविचार की प्रसिद्ध विधि है [४]। हम बैठते हैं और जो भी हम नहीं है उसको पृथक करते जाते हैं, जो अंत में बच जाता है वह स्व है।

हम पहले भौतिक वस्तुओं से शुरू करते हैं , फिर शरीर, फिर मानसिक वस्तुओं (विचार, स्मृति आदि) को अलग करते हैं, अंततः ये देख लेने पर कि ये सारी चीजें स्व नहीं है , हमें इनके अनुभवकर्ता का स्व के रूप में ज्ञान होता है।  यह देखना और समझना बहुत महत्वपूर्ण है कि वस्तुयें / शरीर / मन / नाम / व्यवसाय इत्यादि स्व नहीं है। मात्र बौद्धिक विचार आपको स्व तक नहीं ले जायेगा।  यह स्पष्ट लग सकता है की यह सारी चीजें स्व नहीं है , पर ये केवल आपका विचार मात्र हो सकता है (जो कि स्व नहीं हैं)।  एक बार जब आप स्व तक पहुँच जाते हैं, तो वहाँ रहना, रमना स्वोन्नति के लिए लाभदायक होता है। ऐसा करने से आप जो भी स्व नहीं हैं उसमे फंसने से बचे रहते हैं।  आप देखेंगे की ऐसा हमेशा होगा, स्व अक्सर छूट जायेगा , यह परेशानी है, क्योंकि यह केवल कुछ ही पलों में और आपके नियंत्रण के बिना होता है।  जैसा की होता है, हर चीज़ मुफ्त में नहीं मिलती , यह अभ्यास की बात है, ढ़ेर सारे अभ्यास की।

मैंने पाया है कि आत्मविचार  का एक दूसरा रूप बेहतर है [५], जिसमे आप प्रश्न करते हैं कि  - "मैं क्या हूँ?" या "क्या मैं चेतनायुक्त हूँ?" , बजाय इसके कि मैं कौन हूँ , क्योंकि "कौन" शब्द आपको भरमा सकता है कि आप किसी व्यक्ति को ढूंढ रहे हैं।  आप व्यक्ति नहीं हैं।  व्यक्तित्व आपका एक गुणमात्र है। एक और बेहतर सूत्रीकरण है - "वह क्या है जो यह अनुभव कर रहा है ?", जहाँ "यह " कोई भी चीज़ हो सकती है, जो अभी आपकी अनुभूति में है।  इससे ध्यान उस बाहरी वस्तु या अनुभूति से हटकर अनुभवकर्ता पर आ जायेगा।  ध्यान को अंतर्मुखी करना , अनुभव से अनुभवकर्ता पर ले जाना , यही स्वज्ञान का रहस्य है।

स्व उस वस्तु के अनुभव के ग्राहक के रूप में दिखता है। वस्तु कोई भी हो सकती है,  कोई फर्क नहीं पड़ता, यहां तक कि एक कल्पना या मंत्र भी काम करेगा। तो स्व या आत्म या चेतना वह है जो आपके वर्तमान अनुभव में विद्यमान अंतर्वस्तुओं की अनुभूति कर रहा है [६]। ऐसा करते हुए , वह स्वयं को ऐसा करते हुए अनुभव कर रहा है।  यहाँ स्व का ज्ञान किसको हो रहा है ? स्पष्ट है, स्व का ज्ञान स्वयं उसी को होता है।  कोई दो स्व नहीं हैं, जो एक दुसरे को देख रहे हैं, आप दो नहीं हैं, तो आप स्व नामक कोई दूसरी चीज़ नहीं देख सकते , आप स्वयं को देखते हैं।

जिनको इस स्व नामक अजीब प्राणी का कोई आभास नहीं है, इसे जानने के लिए कुछ प्रयास, कुछ मार्गदर्शन, कौशल्य , एक शिक्षक, और बहुत समय लग सकता है। कुछ लोग तुरंत वहाँ तक पहुँचते हैं, निश्चित रूप से वे प्रतिभाशाली हैं। कुछ लोग लंबे समय तक के लिए वहाँ रह सकते हैं, निश्चित रूप से वे दुर्लभ हैं। इस लक्ष्य प्राप्ति हेतु कई सारी विधियाँ और परम्पराएँ हैं , जैसा की आप जानते होंगे।  अपनी पसंद की कोई चुन लें , कुछ लोगों को कई वर्ष साधना के बाद इसकी कुछ समझ आती है।

दूसरे लोग कौन हैं?

यदि मैं स्व हूँ, और सब कुछ, सारा अस्तित्व मेरा स्वयं का अनुभवमात्र है, तो फिर ये अन्यजन कौन हैं जो ठीक यही दावा करते हैं ? कितना अजीब सवाल है ये .......

मेरे (बहुत अस्थिर और अस्पष्ट) अनुभव में, मैं अन्यजनों को स्व की ही एक रचना के समान देख सकता हूँ, ठीक उस प्रकार जैसे नींद से उठने पर मुझे ये ज्ञात होता है कि मेरे स्वप्न में दिखने वाले सभी जन मैं ही था, वो मेरी ही रचना थे।  अन्यजनों का कोई भिन्न स्व नहीं होता।  किन्तु उनके विभिन्न व्यक्तित्व होते हैं  (जो एक बड़ी समस्या है, अगर आप मुझसे पूछें :D)। ऐसा लगता है, अस्तित्व केवल एक प्रयोग, जो की मैं हूँ , व्यक्तिस्वरूप , करने में विश्वास नहीं रखता , वह अगणित रूप लेना पसंद करता है।  यह एक ही अस्तित्व है जो कई रूप लेता है  एक ही स्व है जो उनका साक्षी है।  यदि आप इस समय  स्व  अनुभव कर रहें हैं , तो वह ठीक वही है जिसे मैं अनुभव कर रहा हूँ।  या कहना चाहिए की हम सब एक ही स्व के द्वारा विभिन्न अनुभव कर रहें हैं।  यह बहुत जटिल बात है, इसको कुछ उदाहरणों से समझना होगा।

एक पर्दा अपने ऊपर कई चरित्रों , अभिनेताओं और दृश्यों का अनुभव करता है।  पर्दा स्वयं चीजें बन जाता है , ये चीजें पर्दे से अलग नहीं होती, उनका अपना अस्तित्व नहीं होता।  एक अभिनेता जो पर्दे पर एक छायामात्र है, पर्दे को नहीं देख सकता और मान लेता है की वो दूसरी छवियों से पृथक है।  पर्दे के दृष्टिकोण से कोई अलगाव नहीं है , वह एक ही है जो विभिन्न रूपों में स्वयं को देखता है [७]।


एक और उदाहरण। अन्यजन चादर के बने पुतलों की तरह हैं , जो आप एक ही चादर के अंदर हाथ डालकर बनाते हैं।  ये पुतले आपस में बात करते हैं, लड़ते हैं, और यह खेल बहुत मज़ेदार होता है।  ये बस चादर हैं जो एक ही चालक द्वारा चलित है।  बहार से अलग दिखते हैं , लेकिन चादर के अंदर से देखें तो एक ही हैं।  बच्चों को इनका आनंद लेते देखना बहुत मनोरंजक होता है, वो मान लेते हैं की ये पुतले "जीवंत" हैं, और अपनी इच्छा से सब कहते-करते हैं।  एक अज्ञानी उस बच्चे की तरह है जो सोचता है कि दुसरे लोग अलग हैं, वो उनको बड़ी गंभीरता से लेता है। तो क्या मैं ये कह रहा हूँ कि दूसरों को गंभीरता से न लें? नहीं , उनके साथ वैसा ही व्यव्हार करें जो आप स्वयं के साथ करते हैं।  यदि आप दूसरों को स्वयं का ही एक रूप पाते हैं, तो और कर भी क्या सकते हैं ..... [८]।


एडुआर्डो रोड्रिगेज कालजाडो द्वारा

साधना 

स्व एक गुप्त जीवन व्यतीत करता है। यह बहुत स्पष्ट गोचर नहीं है। एक बार जब यह प्रकाश में लाया जाता है, हमारा काम हो गया , है ना? नहीं, आप इससे साक्षात्कार होने पर बहुत प्रभावित नहीं होंगे शायद।  आप कहेंगे - यही है स्व? क्या आप मेरे साथ मजाक कर रहे हैं? मैं कबसे यह जानता हूँ।  बेशक़ मैं स्व हूँ, हर चीज़ का और स्वयं का ज्ञाता हूँ।  यह तथ्य जानने के लिए किसी गुफ़ा में २० साल बैठने की आवश्यकता नहीं है ..... यही कहेंगे आप।  कई जनों के लिए यह एक महान उपलब्धि है , उनके जीवन में दिन और रात का अंतर कर देती है।  ऐसे लोग अभिभूत हो जाते हैं , और सोचते हैं कि वो कुछ और "बन" गए हैं , जो वो पहले ना थे , कुछ "महान"।  जो भी हो, कुछ समय बाद अधिकतर जन वापस अपने साधारण जीवन में लौट जाते हैं , वापस अज्ञान में।  कुछ नहीं बदलता, सिवाय इसके कि वो सोचते हैं, वो अन्यजनों की तुलना में कुछ अधिक जानते हैं।

तथ्य यह है कि , कोई स्व में "परिवर्तित" नहीं हो सकता , वो पहले से ही स्व है।  कोई स्व-ज्ञानी या आत्मज्ञानी बन सकता है, जिसका अर्थ होगा - वो जिसको स्व का ज्ञान है और स्व में रमता है, (स्वयं को स्व के रूप में निरंतर अनुभव करता है)।  यह आपकी संपत्ति या उपलब्धि नहीं होगी।  आपको आत्मज्ञान "मिल" नहीं सकता, बस केवल अज्ञान से छुटकारा मिल सकता है।

शायद कुछ लोगों के लिये ये प्रसन्नताजनक है , किन्तु टिकता नहीं।  स्व के रूप में स्थिर रहना और बार-बार अज्ञान के कुएं में गिरने से बचना अभ्यास पर निर्भर है।  कुछ के लिए यह स्वाभाविक रूप से आता है, लेकिन इस अवस्था को पाने के लिए हम में से ज्यादातर को पसीना बहाना पड़ता है। हमें साधना करनी पड़ती है।  यह एक सतत क्रिया है, अक्सर आजीवन चलती है , स्व के रूप में रहना और अपने ज्ञान, विचार, कर्म और आचरण को इसके स्वाभाविक परिणामस्वरूप होने देना।  साधना किसी का सारा जीवन बदल देती है , उसके तौरतरीके , जीवनशैली , संबंध , व्यवसाय , सोचविचार , बोलनाचलना , और सबकुछ।  कुछ की बस कपड़ों की शैली बदलती है, और वो कुछ अजीबोग़रीब वस्त्र और माला आदि धारण करने लगते हैं , किसी कारणवश।  ये तर्क का विषय है कि क्या ये रूप धरना नितांत आवयश्क है ;-) [९]।

पथ को जानना, और उस पर चलना, इनमे भेद है।
- मॉर्फियस, मैट्रिक्स

साधना दुधारी प्रक्रिया है।  स्वरमण स्वाभाविक रूप से बाहरी गुण और चरित्र बदल देता है।  उपयुक्त रूप से जीवनशैली और आचरण बदलने से स्वरमण में सहायता मिलती है।  उदाहरण के लिए, स्वयं को जानने के परिणामस्वरुप , ज्ञात होता है कि शरीर एक महत्वपूर्ण लेकिन स्व का एक छोटा सा पक्ष है और स्वाभाविक रूप से शारीरिक सुखों में व्यक्ति कम समय नष्ट करता है , लालच और वासनाओं पर कम खर्च करता है , स्वस्थ और चुस्त रहने का प्रयास करता है , कम से कम श्रम द्वारा।  शरीर मादक पदार्थों और खाद्य पदार्थों के लिए एक कचरापेटी बनने की बजाय स्व का एक मंदिर बन जाता है।  शरीर आत्मप्रगति के लिए एक बहुत ही उपयोगी उपकरण है, उससे अधिक कुछ नहीं।

यदि कोई अपने मालिक के बैंक खाते को भरने के लिए एक गधे की तरह काम कर रहा है, एक बहुत व्यस्त जीवन जीता है, या लोगों-सम्बन्धियों से ग्रस्तत्रस्त है , जो उसका सारा समय नष्ट कर देते हैं, ऐसा व्यक्ति यदि यह जीवनशैली बदल दे तो बहुत लाभान्वित होगा। साधारण और आरामदायक जीवन से, आत्मविचार के लिए और स्वरमण के अभ्यास के लिए बहुत समय मिलेगा।  तो ये दोनों तरह से प्रभावकारी है।  कुछ लोग इसे चरमसीमा तक ले जाते हैं और या तो अपनी नौकरी, व्यवसाय , परिवारादि का त्याग कर देते हैं और अपने शरीर की उपेक्षा करते हैं , या फिर अंधाधुंध तरीके से बाहरी परिस्थितियों को बदलने का प्रयास करते हैं, ताकि वो उनकी साधना के लिए "अनुकूल" हो जाएं।  प्रायः यह अति केवल बाधायें बढ़ा देती है।  याद रखें, कि यह एक आंतरिक कार्य है, केवल बाहरी हेरफेर से कुछ नहीं होगा। यदि परिस्थिति बहुत ही बोझिल या बड़ी बाधा बन जाती है तो ही उसका कुछ उपाय करना पड़ता है।  स्व तक पहुँचने की कोई जल्दी नहीं होनी चाहिए, आप पहले से ही वहां हैं।

यही साधना या आध्यात्मिक जीवन का सार है।  कोई केवल कर्मकांड या कुछ विशिष्ट कर्मों द्वारा या अजीब वस्त्र और लंबी दाढ़ी धारण करने से आत्मज्ञानी नहीं हो जाता। अधिकांश काम अंदरूनी है, शांति से होता है , बाहरी परिस्थितियां बस सहायक हैं (यदि वो बाधाएं न बन जाएँ)। जैसे-जैसे व्यक्ति भीतर से परिवर्तित होता जाता है , साधना के फल स्वचालित रूप से उभरते जाते हैं।  साधना को परिष्कृत करना और यहां तक कि आपकी प्रगति में तीव्र गति लाना भी संभव है। यह एक कला है और कई अच्छे शिक्षक और गुरु विभिन्न तरीकों से इसे सिखाते हैं।  अपनी पसंद का कोई चुन लें, किन्तु एक शिक्षक केवल पथप्रदर्शक होता है, आपको उस पथ पर स्वयं चलना होता है।  जो भी विधि हो, परंपरा हो, प्रगति के चिन्ह वही हैं - सतत बढ़ता सुख और शांति, जो क्षणिक नहीं है, सभी स्थितियों में स्थिर है। 




टिप्पणियाँ:

[१] मैं उन सभी प्राचीन ऋषियों द्वारा प्रदत शिक्षाओं के लिए उनका अत्यंत आभारी हूँ, जिनके बिना यह चर्चा तक नहीं हो सकती।  समस्या ये है कि , ये सारे शब्द मान्यताओं के बोझ में दबे हैं , और यदि मैं उनका प्रयोग करना चाहूँ तो एक मोटी किताब लिखनी पड़ेगी केवल ये समझाने के लिए, कि मैं क्या कह रहा हूँ और क्या नहीं।  फिर भी , इसका कोई भी अर्थ निकाला जा सकता है, कोई चाहे तो।

[२] उदहारण के लिए , देखें द्वि-रेखाछिद्र प्रयोग या इसका और अनोखा विलंबित चुनाव युक्त रूप।  इस प्रकार के प्रयोग भौतिक पदार्थ कि अवास्तविकता सिद्ध करते हैं।  किन्तु हम आगे  देखेंगे कि , यह केवल शब्दों का खेल हो सकता है, (वास्तविकता कैसे जानें ?), भौतिक पदार्थ हैं , किन्तु केवल वही नहीं है।

[३] मैं यहाँ वैज्ञानिकों और विज्ञान के क्षेत्र में कार्यरत कार्यकर्ताओं में भेद कर रहा हूँ।  ये कार्यकर्ता बस विज्ञान के किसी विशेष क्षेत्र में प्रशिक्षित होते हैं, और जीविका कमाने के लिए उस क्षेत्र में कार्य करते हैं।  एक वैज्ञानिक वो ऋषि है जो सम्पूर्ण मानवता को अपने विलक्षण काम से ऊपर उठा देता है। ये दुर्लभ हैं।

[४]  महान गुरु रमन महर्षि के कारण। मैं इस विषय पर उनकी शिक्षाओं के लिए बहुत आभारी हूँ।

[५] मैं आत्मविचार के इस रूप की शिक्षा के लिए रूपर्ट स्पीरा का आभारी हूँ।

[६]  मैं चेतना की इस स्पष्ट परिभाषा के लिए फ्रांसिस ल्यूसील का आभारी हूँ।

[७] मैं इस रूपक के लिए रूपर्ट स्पीरा का आभारी हूँ।

[८] अन्यजनों के बारे में और - मैं और आप एक ही हैं, तो आपके अंदरूनी विचार मुझे क्यों नहीं पता चलते - इस प्रकार के प्रश्नोत्तर आने वाले लेखों में मिलेंगे। तब तक यह सार्वभौमिक नियम देखें (अंग्रेजी में)।

[९] मैं समझता हूँ कि इस तरह का बाहरी दिखावा कभी-कभी सिर्फ परंपरा के सम्मान में होता है, जो सराहनीय है। तथापि यह आचरण फर्जी शिक्षकों को भोलेभाले छात्रों का गलत फायदा उठाने का अवसर देता है।  ये छात्र बाह्य स्वरूप देख कर ही उस शिक्षक को ज्ञानी समझ बैठते हैं।


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