गुरुवार, 9 जुलाई 2020

माया





समय की माया


समय माया है
काल मिथ्या है

मैंने कभी समय का अनुभव नहीं किया
भूतकाल स्मृति का अनुभव है
भविष्य कल्पना है

वर्तमान समयाभाव है
सभी का यही अनुभव है

समय एक अवधारणा है , कोरी कल्पना है
अनुभव परिवर्तन का है , जो हमेशा वर्तमान में होता है

परिवर्तन नहीं तो समय नहीं
स्मृति नहीं तो परिवर्तन नहीं

स्मृति चित्त है
काल चित्तनिर्मित है , माया है , उसका कोई अस्तित्व नहीं

घडी क्या दिखाती है ? समय या परिवर्तन ?
ऋतुएँ क्यों समय का भरम देती हैं ?
ये पुराने खंडहर कहाँ से आ गए ?
ये विश्वाचित्त की स्मृति है

सभी का अनुभव एक जैसा क्यों है ?
क्या हमारी स्मृतियाँ आपस में सम्बन्धित है ? 
क्या एक ही स्मृति का भाग हैं ?

इतिहास क्यों अज्ञेय है ? 
भविष्य में क्या है ?
काल के पाश से कैसे मुक्ति मिले?

काल मुझमे है , मैं काल में नहीं
मैं अनंत शून्यता हूँ, निरंतर हूँ , नित्य हूँ

न कोई आदि है न अंत है
मैं वो चैतन्य अस्तित्व हूँ



स्थान की माया

स्थान माया है
आकाश , अंतरिक्ष , देश, अंतराल : मिथ्या हैं

स्थान एक मानसिक ढांचा है , व्यवस्था है
इन्द्रियों द्वारा आ रही सूचनाओं का व्यवस्थीकरण है
जिस पृष्ठ्भूमि पर वस्तुएं व्यवस्थित हैं, वो स्थान है


अनुभूत स्थान - जो इन्द्रियों द्वारा जाना जाता है
खगोलीय स्थान - जो ग्रह-नक्षत्रों के बीच है
अंतराणविक स्थान - जो अणुओं के बीच है
ज्यामितीय स्थान - जो गणना में सहायक है
मानसिक स्थान - जहाँ स्वप्नों,विचारादि का अनुभव होता है
चैतन्य स्थान - सभी स्थानों का आधारतल

इतने प्रकार के स्थान क्यों हैं ?

दूरस्थ वस्तुओं, जैसे पर्वतादि की दूरी की अनुभूति असंभव है , तो भी हम अनुभूत स्थान  की  अवधारणा गढ़ लेते हैं
नक्षत्रों की दूरी की अनुभूति असंभव है , तो हम अंतरिक्ष की अवधारणा गढ़ लेते हैं

अणुओं के बिच की दूरी की अनुभूति असंभव है , तो हम अंतराणविक स्थान  अवधारणा गढ़ लेते हैं

तीव्र गति होने पर या अतिगुरुत्व के कारण साधारण अंतराल की अवधारणा काम नहीं आती  , तो हम ज्यामितीय स्थान  की  अवधारणा गढ़ लेते हैं

स्वप्नों में अनुभूत स्थान या विचारों के बिच का अंतराल केवल एक अवधारणा है, मिथ्या है

चेतना अलौकिक है, शून्यता है। इसका आयाम शून्य है।

स्थान एक मानसिक मॉडल मात्र है , जो उत्तरजीविता में उपयोगी है
एक आंख वाले को अनुभूत स्थान की अनुभूति नहीं होगी

अन्य जीवों को भिन्न इन्द्रियों के कारण भिन्न आकाशिकानुभूति होगी
नशे की स्थिति में स्थानानुभूति बदल जाती है

दर्पण में स्थान का आभास क्यों होता है ?
त्रिआयामी चित्रों में स्थान का आभास क्यों होता है ?

कंप्यूटर खेल स्थान का आभास क्यों होता है ?
आभासी वास्तविकता में स्थान कहाँ से आता है ?

सूक्ष्मावस्थाओं में आकाश कहाँ से आता है ?
स्वप्नावस्थों में स्थान कहाँ से आता है ?

यदि स्थान आभासमात्र है तो मैं चलता किसमें हूँ ?
गति कहाँ होती है ?

गति नहीं तो स्थान नहीं
गति स्थान की अपेक्षा अधिक मूलभूत है

गति परिवर्तन है
परिवर्तन का कारण स्मृति है
स्मृति चित्त है !

स्थान चित्तनिर्मित है 
सभी स्थान चेतना में हैं , चेतना का कोई स्थान नहीं है।
मैं देशकाल से परे हूँ, मैं वो अनंत चैतन्य हूँ



जगत की माया

जगत माया है
वस्तुएं मिथ्या हैं

हमें वस्तुओं का अनुभव नहीं होता
हमें इन्द्रियों द्वारा आती हुई अनुभूतियों का अनुभव होता है

अनुभूतियाँ तन्मात्राओं का रूप लेती हैं
तन्मात्राएँ वस्तुएं नहीं हैं
तन्मात्राएँ जगत में नहीं मिलती


वस्तुएं अवधारणा मात्र हैं
जगत वस्तुओं का संग्रह है , अतः एक अवधारणा मात्र हैं

न समय है, न स्थान है , न वस्तुएं हैं
जगत एक स्वप्न है

रात्रिस्वप्न जीवस्मृति से उत्पन्न होतें हैं
जागृत स्वप्न विश्वस्मृति से उत्पन्न होतें है

वस्तुनिष्ठता सहमति का परिणाम है
सबका अनुभव व्यक्तिनिष्ठ है

स्वप्न और जागृति की तुलना





व्यक्ति की माया

व्यक्ति  माया है
अहंभाव मिथ्या है

मैं व्यक्ति नहीं
व्यक्ति एक अनुभव है

व्यक्ति क्या है ?
इसका सत्य क्या है ?

व्यक्ति :
शरीर, नाम, लिंग, सम्बन्ध, व्यवसाय ,
जाति, कलाएं, पसंद-नापसंद, घटनाएं
परन्तु ये सब स्थायी नहीं
फिर व्यक्ति कैसे स्थायी है ?

शरीर एक वस्तु है, रूप है : वस्तुएं भ्रम है
अन्य अवधारणाएं चित्तवृत्ति हैं, स्मृति है : नाम हैं

व्यक्ति एक मानसिक रचना है
इस रचना के भाग और गुण परिवर्तनशील हैं

भाग बदल जातें हैं , रचना रहती है
यह चित्त की स्थायित्व बनाये रखने की वृत्ति है

चित्त परिवर्तन में स्थायित्व का भ्रम रचता है
व्यक्ति उस अस्थायी छाया का नाम है

यह रचना स्मृति में है
स्मृति नहीं तो व्यक्ति नहीं

स्मृति चित्त है
व्यक्ति चित्तनिर्मित है

व्यक्ति आया कहाँ से ?
शिशु व्यक्तित्व हीन होता है
पारिवारिक - सामाजिक मतारोपण व्यक्तित्व गढ़ता है
शरीर लिंग जाति धर्म वंश राष्ट्रीयता
मानव समाज अज्ञान का स्रोत है

व्यक्ति की मान्यता क्यों आवश्यक है ?
उत्तरजीविता लिए
सामाजिक जीवन के लिए

शरीर माया है , जगत माया है
उस पर व्यक्ति की अवधारणा दोगुनी माया है
व्यक्ति दोहरा असत्य है

व्यक्ति कर्ता नहीं कृत्य है
कर्ताभाव मिथ्या है

मैं व्यक्ति का, कर्मों का अनुभवकर्ता हूँ
मैं वो चैतन्य हूँ ,
जिसकी यह व्यक्ति एक अभिव्यक्ति है



मृत्यु की माया


मृत्यु माया है, 
जन्म-मरण मिथ्या है


मृत्यु माया है
जन्म-मरण मिथ्या है

मृत्यु : मृतिका : मिट्टी
जन्म : मिट्टी से बनी एक रचना
मृत्यु : उस रचना का मिट्टी में विलोप

मृत्यु एक परिवर्तन है
अनुभव है
सभी अनुभव नश्वर हैं


नियम :
१ - जन्म होने पर मृत्यु अनिवार्य है
२ - परिवर्तनशीलता मृत्यु निश्चित करती है
३ - साक्षी का होना अनिवार्य है
४ - मान्यताएं , कल्पनाएं , अन्धविश्वास आदि मना हैं

शरीर : अस्थायी पदार्थ संग्रह
मृत्यु : शरीर का सम्पूर्ण नाश

यदि मैं शरीर हूँ
तो मृत्यु निश्चित है

शरीर चित्त की परत है
क्या केवल शरीर का ही नाश होता है?

सभी परतें नष्ट हो जाती है
उनकी जीवन अवधि भिन्न है

शरीर आदि परतें वस्तुऐ हैं।
वस्तुएं मिथ्या हैं
वस्तुएं : नादरचनाओं का परिवर्तनशील रूप

न जन्म हुआ है न मृत्यु
नादरचनाओं का  संगठन- विगठन

केवल परिवर्तन है, जन्म मृत्यु नहीं


व्यक्ति : एक भ्र्म
व्यक्ति : मान्यताओं का अस्थायी संग्रह

यदि मैं व्यक्ति हूँ
तो पहले ही मर चुका हूँ

चित्त/मन : स्मृतिओं का अस्थायी संग्रह
स्मृतियाँ नाद हैं

चित्त मैं नहीं, मेरा नहीं
स्मृति मैं नहीं, मेरी नहीं
संस्कार मेरे नहीं
वो तो हर क्षण जन्मते मरते हैं

चित्त परिवर्तनशील है
पिछले क्षण का चित्त
इस क्षण मर चुका है

अनुभवकर्ता : शून्यता है
संग्रह नहीं
सभी संग्राही प्रक्रियाओं का साक्षी

अनुभवकर्ता गतिहिन है
परिवर्तन का दृष्टा है
न जन्मा है न मरता है

अनुभवकर्ता यह अस्तित्व है
अस्तित्व सदा रहता है

अस्तित्व में अनुभव उभरते गिरते हैं
मैं वो अस्तित्व हूँ

जन्म मरण से परे
मैं वो चैतन्य हूँ

दुःख की माया
दुःख माया है
दुःख मनोनिर्मित है

पीड़ा नैसर्गिक है
शारीरिक अनुभव है
जीवनोपयोगी है

पीड़ा आवश्यक है
आकर चली जाती है

दुःख अनावश्यक है
जीवन भर रहता है
दुःख स्मृति में छपा है

दुःख का कारण पीड़ा,
जीवन की परिस्थितियाँ,
संबंधी या अन्य जन नहीं हैं

दुःख का कारण अज्ञान है
आत्म ज्ञान और चित्त ज्ञान का अभाव

जब अनुभव इच्छा के विपरीत होता है
चित्त नकारात्मक विचार,
भावनाएं, वाणी, कर्म आदि निर्मित करता है
यह दुःख की अवस्था है

यह चित्तावस्था
अवसाद, क्रोध, घृणा, कटुता, भय, स्वनिन्दा, आत्मग्लानी
आदि रूपों में अनुभव की जाती है

यह दण्ड चित्त स्वयं को देता है
उस पर अहमभाव की प्रक्रिया
ये सारे अनुभव मैं हूँ
ये भाव मेरे हैं
कर्ता मैं हूँ
इस रूप में उभरती है

ये दण्ड प्राणी को वासना पूर्ति के लिए प्रेरित करता है
दुःख उत्तरजीविता हेतु है
पीड़ा की विकसित वृत्ति है

चित्त वासना पूर्ति में लिप्त है
संपूर्ण जीवन वासना पूर्ति है
जितनी वासनाएं उतना दुःख

दुःख वृत्ति इन्द्रियानुभव और स्मृति में भेद नहीं करती
स्मृतियां भी उतना ही दुःख देती हैं

एक चित्त वृत्ति बार बार इन स्मृतियों को मनसपटल पर लाती है

जितनी कटु स्मृति होगी
उतनी प्राथमिक होगी

जितनी नई स्मृति होगी
उतनी प्राथमिक होगी

यह स्वचालित प्रक्रिया है
वर्तमान अनुभव सुखदाई होने पर भी, यह वृत्ति चलती है

सकारात्मक स्मृति को भी
नकारात्मक रूप में दिखाती है

चित्त भूतकाल को सुधारने का प्रयत्न कर रहा है
यह असंभव है

इस प्रक्रिया से जीवन नर्कीय हो जाता है
अज्ञानवश और अहमभाव के कारण मनुष्य चित्त निर्मित दुःख भोगता है
इसे जीवन का अभिन्न अंग मान लेता है

वासनाएं मेरी नहीं
पीड़ा मेरी नहीं
दुःख मेरा नहीं

ये सब मैं नहीं
ये आते-जाते अनुभव हैं
चित्त पटल पर उभरती गिरती तरंगें हैं

मैं इनका अनुभव कर्ता हूँ
मैं चित्त निर्मित प्रक्रियाओं का दृष्टा हूँ

चित्त के अनुभवों और स्वयं में भेद करें
इनसे दूरी बना लें
त्याग दें

दुःख जीवित रहने में अधिक उपयोगी है सुख कम

जो भी उचित है, कर्म करें
स्मृतियों की और वृत्तियों की चेतना बनाये रखें

यथोचित उपाय करें
विवेक का प्रयोग करें
गुरु का सहयोग लें
दुःख की अवस्था सर्वथा अनुपयोगी है

मंत्र तंत्र यंत्र
पूजा पाठ अर्चना प्रार्थना
अन्धविश्वास दोषारोपण अनुपयोगी है
तर्कसंगत उपाय करें


आत्मस्थान ग्रहण करें
अज्ञान का नाश करें

दुःख और पीड़ा के परे
जो परमानंद है
मैं वो चैतन्य हूँ





पुनर्जन्म 
की माया


पुनर्जन्म माया है
जन्म मरण चक्र मिथ्या है

मेरा न जन्म हुआ न मृत्यु
न पुनर्जन्म न पुनरमृत्यु

शरीर मिथ्या है
व्यक्ति मिथ्या है
मन मिथ्या है
जीव मिथ्या है
स्मृति मिथ्या है

ये आते-जाते अनुभव हैं
मैं इनका दृष्टा हूँ

जन्म शरीर का है
शरीर जैविक पदार्थों का एक संग्रह है
संघटन है
मृत्यु शरीर की है
विघटन है

जो विघटित हुआ है
वो पुनः संघटित हो सकता है
यह चक्र चलता रहता है

क्या वातावरण में बिखरे पदार्थों के
पुनर्संघटन को मेरा पुनर्जन्म कह सकतें हैं?

एक शरीर केवल एक बार रचित होगा
पदार्थ वही होंगे

एक शरीर दोबारा कभी नहीं प्रकट होगा
शरीर का पुनर्जन्म असंभव है

व्यक्ति एक मानसिक संघटन है
कभी दोबारा प्रकट नहीं होगा

मनोवृत्ति दोबारा प्रकट नहीं होगी
चित्त की ये निचली परतें बनती बिगड़ती हैं

यदि मैं ये निचली परतें हूँ
तो मेरा पुनर्जन्म असंभव है

स्मृति तुलनात्मक रूप से अधिक स्थायी है
जीव के अनुभव विश्व स्मृति पर छाप छोड़ते हैं
ये जीव स्मृति है

जीव स्मृति लाखों वर्षों से संग्रहित हो रही है
ये संस्कार हैं

विश्व चित्त में कोई सीमा रेखाएँ नहीं हैं
सभी संरचनाएं परस्पर संपर्क में हैं

शारीरिक, ईन्दिय, मानसिक संरचनाएं
जीव स्मृति से संपर्क में आ जाती हैं

यह कारण शरीर है

संपर्क प्रगाढ़ होने पर
कारण शरीर जीव को प्रभावित करता है
जीवन के अनुभव कारण शरीर में
संग्रहित होने लगते हैं

ऐसा प्रतीत होता है कि पिछला व्यक्तित्व
दोबारा प्रकट हुआ है
ये स्मृति के अवशेष हैं

संपर्क कर्षण के नियम का पालन करता है
जीव वृत्ति से कारण शरीर निर्धारित होता है

संस्कार और वासनाऐं निर्धारित करती है
किन निचली परतों से संपर्क होगा

यह स्वचालित प्रक्रिया है
स्वेच्छा नहीं

पहले यह प्रक्रिया होती है
व्यक्ति बाद में आता है

कर्षण के कारण बंधन है
जीव इस चक्र में बंध जाता है

विकास क्रम द्वारा कारण शरीर
विभिन्न रूपों में अनुभवसंग्रहलिन रहता है

इसका कोई अंत नहीं
मनुष्य रूप में मुक्ति की संभावना प्रकट होती है

मैं कारण शरीर नहीं
यह ज्ञान मुक्ति है

जन्म मरण के चक्रीय अनुभवों का
मैं अनुभवकर्ता हूँ

जो आवागमन से परे है
मैं वो चैतन्य हूँ



दुःख की माया


दुःख माया है
दुःख मनोनिर्मित है

पीड़ा नैसर्गिक है
शारीरिक अनुभव है
जीवनोपयोगी है

पीड़ा आवश्यक है
आकर चली जाती है

दुःख अनावश्यक है
जीवन भर रहता है
दुःख स्मृति में छपा है

दुःख का कारण पीड़ा,
जीवन की परिस्थितियाँ,
संबंधी या अन्य जन नहीं हैं

दुःख का कारण अज्ञान है
आत्म ज्ञान और चित्त ज्ञान का अभाव 

जब अनुभव इच्छा के विपरीत होता है
चित्त नकारात्मक विचार,
भावनाएं, वाणी, कर्म आदि निर्मित करता है
यह दुःख की अवस्था है

यह चित्तावस्था
अवसाद, क्रोध, घृणा, कटुता, भय, स्वनिन्दा, आत्मग्लानी
आदि रूपों में अनुभव की जाती है

यह दण्ड चित्त स्वयं को देता है
उस पर अहमभाव की प्रक्रिया
ये सारे अनुभव मैं हूँ
ये भाव मेरे हैं
कर्ता मैं हूँ
इस रूप में उभरती है 

ये दण्ड प्राणी को वासना पूर्ति के लिए प्रेरित करता है
दुःख उत्तरजीविता हेतु है
पीड़ा की विकसित वृत्ति है

चित्त वासना पूर्ति में लिप्त है
संपूर्ण जीवन वासना पूर्ति है
जितनी वासनाएं उतना दुःख

दुःख वृत्ति इन्द्रियानुभव और स्मृति में भेद नहीं करती
स्मृतियां भी उतना ही दुःख देती हैं

एक चित्त वृत्ति बार बार इन स्मृतियों को मनसपटल पर लाती है

जितनी कटु स्मृति होगी
उतनी प्राथमिक होगी

जितनी नई स्मृति होगी
उतनी प्राथमिक होगी

यह स्वचालित प्रक्रिया है
वर्तमान अनुभव सुखदाई होने पर भी, यह वृत्ति चलती है

सकारात्मक स्मृति को भी
नकारात्मक रूप में दिखाती है

चित्त भूतकाल को सुधारने का प्रयत्न कर रहा है
यह असंभव है

इस प्रक्रिया से जीवन नर्कीय हो जाता है
अज्ञानवश और अहमभाव के कारण मनुष्य चित्त निर्मित दुःख भोगता है
इसे जीवन का अभिन्न अंग मान लेता है

वासनाएं मेरी नहीं
पीड़ा मेरी नहीं
दुःख मेरा नहीं

ये सब मैं नहीं
ये आते-जाते अनुभव हैं
चित्त पटल पर उभरती गिरती तरंगें हैं

मैं इनका अनुभव कर्ता हूँ
मैं चित्त निर्मित प्रक्रियाओं का दृष्टा हूँ

चित्त के अनुभवों और स्वयं में भेद करें
इनसे दूरी बना लें
त्याग दें

दुःख जीवित रहने में अधिक उपयोगी है सुख कम 

जो भी उचित है, कर्म करें
स्मृतियों की और वृत्तियों की चेतना बनाये रखें

यथोचित उपाय करें
विवेक का प्रयोग करें
गुरु का सहयोग लें
दुःख की अवस्था सर्वथा अनुपयोगी है 

मंत्र तंत्र यंत्र
पूजा पाठ अर्चना प्रार्थना
अन्धविश्वास दोषारोपण
अनुपयोगी है
तर्कसंगत उपाय करें 


आत्मस्थान ग्रहण करें
अज्ञान का नाश करें

दुःख और पीड़ा के परे
जो परमानंद है
मैं वो चैतन्य हूँ



सुख की माया


सुख माया है
सुख चित्तनिर्मित है

अनुभव > संस्कार > वासनाएं > कर्म > फल > सुख / दुःख > अनुभव
अज्ञान : चित्त के अनुभव मैं हूँ
ज्ञान : ये चित्त की प्रक्रियाएं हैं

सुख :
वासना पूर्ति का पुरस्कार

दुःख :
असफलता का दंड

सुख :
एक मानसिक घटना

उत्तरजीविता के लिए उपयोगी
जीवित रहने के लिए एक प्रक्रिया

सुख का पुरस्कार
प्राणी को कर्म के लिए प्रेरित करता है

दुःख का दंड
गलती की शिक्षा

सुख दुःख की वृत्ति
मनोशरीर यंत्र को चलाती है


सुख को जीवन लक्ष्य मान लिया जाता है
सुख तो चित्त की प्रतिक्रिया है
प्राणी को प्रशिक्षित करती है

सुख के लिए व्यक्ति अच्छा बुरा नहीं सोचता
व्यक्ति वो कर्म करता है जो सुखदायी है

सुख एक लत है

सुख की चाह में व्यक्ति
और अधिक वासना लिप्त होता है
चित्त को वासनाओं का घर बना लेता है

वासनाएं अनंत हैं
सुख अस्थायी है

व्यक्ति सुख के लालच में
वासनाओं का दास बन जाता है

वासनापूर्ति भी सुख नहीं देती
यदि दोहराई जाएँ

सुख और भोग, दुःख और पीड़ा
बन जातें हैं

यदि वस्तुओं, संबंधों, सामाजिक स्तर,
बौद्धिक उपलब्धि आदि में सुख नहीं,
तो कहाँ है ?

सुख बाहर नहीं, भीतर है

इन घटनाओं, कर्मों से नहीं मिलता
मन के अंदर निर्मित होता है

यह यंत्रवत है
सुख स्वचालित है

मैं सुखी नहीं
ये अनित्य अवस्था मात्र है

मनुष्य सुख का दास है
यह परम दुःख है

इस बंधन का कारण अज्ञान है

सुख दुःख की मानसिक वृत्ति का अज्ञान

सुख दुःख न हो तो क्या होगा?

सुख दुःख रहित अवस्था आनंद है

आनंद वृत्ति नहीं
यह मेरा सच्चा स्वभाव है

आनंद स्थायी है
किसी वस्तु , व्यक्ति, स्थिति पर निर्भर नहीं

आनंद कर्म से नहीं मिलता
कर्म से दूषित हो जाता है

आनंद स्वतंत्रता है गुलामी नहीं
आनंद स्वच्छंद है , निर्मल है

सुख दुःख की यांत्रिक वृत्ति के परे
जो आनंदमय है
मैं वो चैतन्य हूँ





कारण की माया

कारण माया है
प्रभाव मिथ्या है

अस्तित्व है
अनुभव हैं
अनुभवकर्ता है
इनका कोई कारण नहीं
और ये एक हैं , बहोत नहीं

यदि एक है ,
तो कारण होने पर दो हो जायेंगे -
एक अस्तित्व , दूसरा कारण

फिर क्या कारण कोई दूसरा अस्तित्व है ?
यह अर्थहीन है

यदि प्रभाव है , तो इसी अस्तित्व में नहीं होगा
यह भी अर्थहीन है 

कारण एक घटना है 
प्रभाव दूसरी घटना है

जो भी घटता है
अस्तित्व में घटता है
उसके अंदर है , बाहर नहीं

अस्तित्व का कोई कारण नहीं
कोई प्रभाव नहीं

अनुभव का , अनुभवकर्ता का कोई कारण नहीं
कोई प्रभाव नहीं

जीवन एक अनुभव है
इसका कोई कारण नहीं
कोई  प्रभाव नहीं

जीव एक अनुभव है
इसका कोई कारण नहीं
कोई  प्रभाव नहीं

कारण अज्ञान है
दुःख इसका फल है

कारण और प्रभाव दो घटनाएं है
जो सम्बंधित प्रतीत होती हैं

यह सम्बन्ध चित्तनिर्मित है
वास्तविक नहीं

यदि एक घटना का कारण आवश्यक है
तो उस कारण का भी कारण आवश्यक है

यह कारणों की अनंत श्रृंखला होगी
यह अर्थहीन है

यदि एक घटना का प्रभाव आवश्यक है
तो उस प्रभाव का भी प्रभाव आवश्यक है

यह प्रभावों की अनंत श्रृंखला होगी
यह अर्थहीन है

इस अनंत श्रृंखला में
हर घटना के अनंत कारण होंगे

अर्थात एक घटना का कारण
सभी घटनाएं हैं

एक घटना का प्रभाव 
सभी घटनाएं हैं
यह अर्थहीन है

घटना का आंरभ मनगढंत है
घटना का अंत मनगढंत है

जिसका न आरम्भ है, न मध्य, न अंत
क्या वो सत्य है?
क्या उसका अस्तित्व है?

अस्तित्व भी ऐसा हि है
परन्तु वो कोई घटना नहीं

कारण और प्रभाव का
न आरम्भ है , न मध्य , न अंत
अतः मिथ्या है

प्रभाव कारण के बाद आता है
समय पर निर्भर है
समय मिथ्या है
अतः कारण और प्रभाव मिथ्या है

कारण और प्रभाव एक स्थान पर हैं
स्थान मिथ्या है
अतः कारण और प्रभाव मिथ्या है

प्रभाव के गुण कारण में हैं
कारण के गुण प्रभाव में हैं

ये दो घटनाएं भिन्न नहीं
यदि कारण ही प्रभाव है
प्रभाव ही कारण है
क्या वो स्वतंत्र सत्य हैं ?

घटनाएं नहीं है
कारण नहीं प्रभाव नहीं
निरंतर परिवर्तन का अनुभव है

अखंड निरंतरता है

कारण और प्रभाव चित्तनिर्मित मान्यताएं हैं
उत्तरजीविता के लिए उपयोगी है

कर्म कारण है
फल प्रभाव है
अतः कर्म और फल मिथ्या है

जीव कर्म - फल चक्र में बंधा है
वो भी मिथ्या है

न मेरे सुख का कोई कारण है
न दुःख का
न हानि का , न लाभ का
न जयाजय का
न जन्माजन्म का

मैं मुक्त हूँ
सभी मुक्त हैं

प्रभाव नहीं तो कर्मोँ का अर्थ नहीं
कर्म प्रतीति हैं
कर्ता मिथ्या है
सब अखंड निरंतर अनुभव मात्र है

मान्यताएं अज्ञान है
सत्य नित्य है

कारण और प्रभाव के परे
कर्म और फल के परे
जो अखंड निरंतर स्वयंभू है
मैं वो चैतन्य हूँ






ज्ञान की माया



ज्ञान माया है
अज्ञान मिथ्या है

जो अनुभव किया जा सकता है
उसी का ज्ञान हो सकता है

सभी अनुभव परिवर्तनशील हैं
सभी अनुभव नश्वर हैं
सभी अनुभव चित्तनिर्मित हैं
अतः माया है

सभी अनुभव यदि मिथ्या हैं
तो उन पर आधारित ज्ञान भी मिथ्या है

अनुमान अनुभव पर आधारित है
अतः विश्वसनीय नहीं है

बुद्धि अनुभव पर आधारित है
बुद्धि सीमित है

तर्क बुद्धि पर आधारित है
सीमित है
विश्वसनीय नहीं है

अपरोक्ष अनुभव और अनुमान
ज्ञान के आधार हैं
अतः ज्ञान आधारहीन है

सत्य व्यक्तिनिष्ठ और मनमाना
वर्गीकरण है
सत्य का कोई यथार्थ नहीं

सत्य परिवर्तनशील प्रतीत होता है
अर्थ व्यक्तिनिष्ठ हैं

ज्ञानमार्ग पर ज्ञाननाश होता है

अनुभवकर्ता ज्ञान का भी साक्षी है
अनुभवकर्ता को कोई ज्ञान नहीं
न उसको अज्ञान है

अनुभवकर्ता के लिए
कोई सत्य नहीं
न असत्य है

अनुभवकर्ता परमशून्य है
निर्मल, निर्गुण है

अस्तित्व अनुभवकर्ता है

ज्ञान स्मृति में एक रचना है
अतः माया है

ज्ञान मल है

ज्ञानांत अनुभवकर्ता का प्रकट होना है
स्मृतिमल का नाश है

अनुभवकर्ता ज्ञान से नहीं मिलता
न अज्ञान से
ज्ञानाज्ञान के नाश से मिलता है

ज्ञानमार्ग पर ज्ञान नहीं मिलता
अज्ञान का नाश होता है

अनुभवकर्ता अज्ञेय है

जान कर भी न जानना
अज्ञेयवाद है

अज्ञेयवादी ज्ञान का दास नहीं
वह ज्ञानबंधन में नहीं
स्वतंत्र है, मुक्त है
अनुभवकर्ता के अत्यनिकट है

अज्ञान दंभ का कारण है
मूर्खता है
ज्ञान बडा दंभ है
बडी मूर्खता है

अज्ञेयता बुद्धिमानी है
ईमानदारी है
निश्छलता है

अस्तित्व अज्ञेय है
अनुभव और अनुभवकर्ता अज्ञेय हैं
मैं स्वयं अज्ञेय हूँ

जो अज्ञेय है
वहां कोई ज्ञान नहीं
कोई अज्ञान नहीं
कुछ सत्य नहीं
कुछ असत्य नहीं

सत्यासत्य के परे
ज्ञानाज्ञान के परे
जो अज्ञेय है
मैं वो चैतन्य हूँ




इति मायाश्रृंखला
धन्यवाद





































2 टिप्‍पणियां:

  1. Anuvawkarta .......... Agyayewadi

    Bus ye do mil gaya eske baad kewal ek rahega, sahi kaha na

    Kuch din se bahut dar lagta tha sunya me khone ka........ Jab chit aadi ko to todi der ke liye bhula to waha kuch bhi ni tha dar bhi nahi.

    Es video ke liye dhanyabad


    Bus toda pryas awr uske baad video bhi nahi dekh paunga, ek help karengy aap.... Mujey bataiye ya llink de dijiye

    Ki chit se maya suru hoti he chit ke uper ke bare me kuch bataye, awr ek baat jis kisi ne bhi eswar ka ya jo bhi ho uska anubhav kiya wo awastha bataiye baaki mai kr lunga.

    Ek baat awr ki chit awr uske baad sab maya he, man budhi samajh tark aadi aadi tik awr uske pahle atma jo anubhawkarta he tik awr atna ke saath chetna hoti he jo anubhav ko mahsus karti he aap bataye ye sahi kaha ya kuch sansodhan krna he
    Es karan pucha ki chit awr chit ke baad sab chor diya pr uske pahle me kuch toda samjha dety aap bus ek baar. Fiir to anuvaw krna he.
    Toda sa clear kariye yahi pr fasa hu

    Dhanyavaad
    bikas108@gmail.com

    जवाब देंहटाएं