अनुभवक्रिया में रत अस्तित्व आधारभूत प्रक्रिया से बंध जाता है जिसका परिणाम अनुभवों का आत्मसंगठन है, जिसे हम ज्ञान कहते हैं। आधारभूत प्रक्रिया की यह गतिविधि विभिन्न रूपों में दिखती है, जैसे एक बहती नदी धरा को विभिन्न रूपों में तराशती है। यदि हम इस आत्मसंगठन की गतिविधियों का एक जगह संकलन कर दें तो यह एक विराट वस्तु का रूप ले लेतीं है। इससे हम पहले ही चित्त के नाम से परिचित हो चुके हैं। यह स्वभक्षी है , अपने विस्तार के सीधे अनुपात में बढ़ता जाता है , और अधिक संगठन , संरचना , अर्थ और गतिविधि रचता जाता है। यह आवश्यकताजनित है , क्योंकि कोई चीज़ ऐसा ना करे तो वह संरचनाओं के रूप में अनुभव नहीं की जा सकती , नश्वरता के प्रभाव से वो तुरंत विलीन हो जाती है। यदि आप चकित हैं कि उपरोक्त का क्या अर्थ है , तो शायद आप कहीं बीच में पढ़ना शुरू कर रहें हैं , तो कृपया पिछले लेख पढ़ लें, इन वाक्यों का अर्थ समझने के लिए।
चित्त की यह आत्मनिर्भर महासंरचना सच में एक अनोखी और असाधारण चीज़ है। मुझे लगता है कि अस्तित्व को इस पर बड़ा गर्व है , यह उसकी प्रिय संतान है। यह प्रेम इतना गहरा है कि , स्व के रूप में अस्तित्व स्वयं को चित्त मान बैठता है। बहुत अच्छा लगता है लेकिन तब तक , जब तक दुःख नहीं शुरू होता। माँ-बेटे के इस प्रेम में ये दुःख बीच में कहाँ से आ गया? क्या चित्त में कोई बना बनाया दुःख को जनने वाला यन्त्र है? क्या आधारभूत प्रक्रिया ने इस त्रुटि को एक विशेषता कहकर छोड़ दिया है ;-)?