सोमवार, 2 जनवरी 2017

चित्त एक अनोखा वरदान : भाग - १



अनुभवक्रिया में रत अस्तित्व आधारभूत प्रक्रिया से बंध जाता है जिसका परिणाम अनुभवों का आत्मसंगठन है, जिसे हम ज्ञान कहते हैं।  आधारभूत प्रक्रिया की यह गतिविधि विभिन्न रूपों में दिखती है, जैसे एक बहती नदी धरा को विभिन्न रूपों में तराशती है।  यदि हम इस आत्मसंगठन की गतिविधियों का एक जगह संकलन कर दें तो यह एक विराट वस्तु का रूप ले लेतीं है।  इससे हम पहले ही चित्त के नाम से परिचित हो चुके हैं।  यह स्वभक्षी है , अपने विस्तार के सीधे अनुपात में बढ़ता जाता है , और अधिक संगठन , संरचना , अर्थ और गतिविधि रचता जाता है।  यह आवश्यकताजनित है , क्योंकि कोई चीज़ ऐसा ना करे तो वह संरचनाओं के रूप में अनुभव नहीं की जा सकती , नश्वरता के प्रभाव से वो तुरंत विलीन हो जाती है।  यदि आप चकित हैं कि उपरोक्त का क्या अर्थ है , तो शायद आप कहीं बीच में पढ़ना शुरू कर रहें हैं , तो कृपया पिछले लेख पढ़ लें, इन वाक्यों का अर्थ समझने के लिए।

चित्त की यह आत्मनिर्भर महासंरचना सच में एक अनोखी और असाधारण चीज़ है।  मुझे लगता है कि अस्तित्व को इस पर बड़ा गर्व है , यह उसकी प्रिय संतान है।  यह प्रेम इतना गहरा है कि , स्व के रूप में अस्तित्व स्वयं को चित्त मान बैठता है।  बहुत अच्छा लगता है लेकिन तब तक , जब तक दुःख नहीं शुरू होता।  माँ-बेटे के इस प्रेम में ये दुःख बीच में कहाँ से आ गया? क्या चित्त में कोई बना बनाया दुःख को जनने वाला यन्त्र है? क्या आधारभूत प्रक्रिया ने इस त्रुटि को एक विशेषता कहकर छोड़ दिया है ;-)?


यहाँ आकर हम उस प्राचीन प्रश्न उत्तर दे सकते हैं - दुःख क्यों है ? संक्षेप में - मौलिक तौर से दुःख का कोई अस्तित्व नहीं है , यह एक क्षणिक घटनामात्र है।  केवल एक अनुभव होने के कारण , और आधारभूत प्रक्रिया का परिणाम होने के कारण , चित्त नश्वर है, अस्थायी है।  चित्त के साथ एकीकरण के परिणामस्वरूप स्व को एक व्याकुलता सी होती है, क़ैद होने की, बंधित होने की और क्रमशः नष्ट होने की अनुभूति होती है [१]। यह केवल अज्ञान है , आंशिक ज्ञान है कि चित्त ही स्व है , जो कि वह है , लेकिन बस क्षण भर के लिए , स्व तो बस चित्त की प्रक्रिया से गुज़र रहा है।  जल्दी ही यह प्रक्रिया परिपक्व हो जाती है और ज्ञान पूर्ण होता है।  जैसे ही स्व को आभास होता है कि वह चित्त नहीं है और नष्ट नहीं हो रहा , किसी और रूप में बदल नहीं रहा, क्षीण नहीं हो रहा, वह प्रकाशित हो जाता है , प्रसन्न हो जाता है।  स्व अब चित्त से अनेकीकृत हो जाता है , उसे घटित होने देता है , आसक्ति निस्वार्थ प्रेम में बदल जाती है और दुखों का अंत होता है।  दुःख था ही कब, बस अज्ञान था।

यहाँ हम दुःख का महत्त्व देखतें हैं, इसका अर्थ है कि स्व अपने चित्त के साथ अज्ञान के अंतिम चरण में है , ज्ञान पूर्ण होने को है।  बहुत जल्दी स्व ये देख लेगा कि चित्त एक संरचनामात्र है , एक सुन्दर रचना। दुःख , पीड़ा , सुख और आनंद से भरी कोई भूलभुलैया नहीं।  यदि किसी को कोई दुःख नहीं है , तो वह गहन अज्ञान में है, लेकिन आनंदपूर्वक।  दुःख अस्तित्व को प्रश्नों के घेरे में ले आता है, वो - मैं कौन हूँ और क्यों दुःख झेल रहा हूँ - इन प्रश्नों की ओर ले जाता है, और क्रमश उत्तर मिलते जाते हैं।  दुःख ज्ञान की ओर खुलने वाला द्वार है।  कई बार , स्व चित्त पर ही नहीं रुकता , और नीचे अवतरित होता है और आधारभूत प्रक्रिया द्वारा रचित अन्य संरचनाओं से एकीकृत होने लगता है, जैसे कि उत्तरजीविता, शरीर , जैविक अंग, और यहाँ तक की आसपास का भौतिक वातावरण [२]।  इसकी वजह से ज्ञानमार्ग बहुत टेढ़ामेढ़ा , पथरीला और गड्ढों भरा हो जाता है।  उसके बारे में फिर कभी चर्चा करेंगे , अभी हम इस विलक्षण चीज़ - चित्त - का अन्वेषण करेंगे।

चित्त की क्षमताएं 

चित्त की यह संरचना स्व को कुछ उत्कृष्ट क्षमताएं प्रदान करती है।  स्व की अपनी कोई क्षमता या गुण नहीं होते, सचेत और साक्षी रहने के अलावा।  स्व शुद्ध है, वास्तव में लगभग शुद्ध , क्योंकि यह अस्तित्व की छायामात्र है, जो परमशुद्ध है।  चित्त इसको कुछ योग्यताएं , उपकरण , नवानुभव , खिलौनें और शस्त्र देता है।  स्व को यह खेल पसंद है।  स्व को अपने कुछ पक्ष चित्त द्वारा ज्ञात होते हैं।  चित्त इसी लिए है - स्व के आनंद के लिए।  इसको अधिक गंभीरता से नहीं लेना चाहिए , यह आनीजानी चीज़ है।  नश्वर है।

चित्त स्व को ठीक द्वंद्व के बीच ले आता है।  तो हरेक गुण उससे संबंधित कष्ट के दाम के साथ मिलता है।  जैसे कि हम चर्चा कर चुके हैं, ज्ञान के रचनाकार के रूप में , चित्त स्व पर बंधन डाल देता है, उसको एक अस्थायी और मायावी दृश्य दिखाता है और उसको अपना स्वभाव भुला देता है।  हम इस गुणसूची [३] को देखेंगे और उनका अध्ययन करेंगे और चित्त के इस खेल को अधिक आनंददायक बनाने के लिए विभिन्न कष्टों का कोई उपाय ढूंढने का प्रयत्न करेंगे।

१. अनुभूति

अनुभूति एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा चित्त अनुभवक्रिया को एक सुसंगठित रूप में स्व के सामने प्रस्तुत करता है। उदाहरण के लिए , दृष्टि, श्रवण, स्वाद, स्पर्श और गंध आदि की अनुभूतियों द्वारा अस्तित्व को भौतिक जगत के रूप में अनुभव किया जा सकता है।  यह सब अनुभवक्रिया में मिलने वाले प्रतिरूप हैं, और कुछ नहीं।  प्रतिरूपों का एक संग्रह वस्तु कहलाता है।  मानवचित्त में वस्तुओं को अवस्थति देने की एक असाधारण क्षमता है।  एक दूसरी उपयोगी संरचना - देश - के साथ वस्तुओं को संगठित करके चित्त स्थान का निर्धारण करता है। यह दृष्टि में सर्वाधिक स्पष्ट होता है, श्रवण में कुछ कम और स्पर्श में लगभग नहीं के बराबर होता है (अंधजन सहमत नहीं होंगे शायद, किन्तु अभी वहां नहीं जाते)।  तो क्या एक देश (आकाश , खालीपन, "आभाव") होता है और हम उसमे वस्तुओं को स्थित देखते हैं? संक्षेप में - नहीं।  चित्त द्वारा इन्द्रिय सूचनाओं को संगठित करने का परिणाम देश होता है।  यदि कोई वस्तु नहीं, तो देश भी नहीं।  (देश, काल, देशकाल और गति पर अधिक चर्चा ..... बाद में)।

क्या आपको सच में यकीन है कि फर्श कभी छत नहीं बन सकती?
- एम सी एस्शर 

चित्त में अपनी स्वयं की गतिविधियों को वस्तुनिष्ठ करके अनुभूतियों के रूप में प्रस्तुत करने की क्षमता है।  उदहारण के लिए, विचार और कल्पनाएं , यद्यपि वह इनको देश में सुव्यवस्थित नहीं करता, तो ये वस्तुएं हैं लेकिन सही में नहीं।  शारीरिक संवेदनाएं जैसे की पीड़ा, भूख आदि भी अनुभूतियों के रूप में प्रस्तुत की जाती हैं।

पारंपरिक तौर से, अनुभूति को बाहरी इन्द्रीय संवेदनाओं के रूप में समझा जाता है।  किन्तु हम अनुभूति की परिभाषा को विस्तारित करेंगे और इसमें कुछ और चीजें संम्मिलित करेंगे , जिनमे कुछ बाहरी हैं, कुछ नहीं।  अंततः "बाहरी" और "अंदरूनी" का भेद कोई मायने नहीं रखता क्योंकि यहाँ केवल अनुभूति है - एक अनुभव जो हर जगह है पर किसी जगह नहीं।

बाह्यग्रहण : दृष्टि, श्रवण, स्वाद, गंध, व स्पर्श ये जानीमानी पंचेंद्रीय अनुभूतियाँ हैं।  ये भौतिक जगत को प्रस्तुत करती हैं, भौतिक जगत को अनुभव करने का कोई और प्रत्यक्ष तरीका नहीं है।  चित्त को इन्द्रिय संरचनाएं केंद्रीय स्नायुतंत्र के विस्तारित भाग के रूप में दिखती हैं - विशेष तंत्रिकाकोशिकाओं से युक्त अंगों के रूप में।

स्वांतर्ग्रहण : इन संरचनाओं द्वारा हमें स्वशरीर की चेतना मिलती है।  गतिसंवेदी अनुभूतियाँ जैसे कि शरीर की गतिविधि (जोड़, मांसपेशियां), संतुलन (अंतर्कर्ण) और हाथपैरों की स्थिति (यदि हम उन्हें देखें या छुएं नहीं), शरीर की स्थिति की जानकारी देने वाली अनुभतियां हैं।  इनके बिना कोई चलफिर नहीं सकता, खड़ा नहीं हो सकता या नाच नहीं सकता। यदि आप पेड़ पर चढ़ें तो इन्हें स्पष्ट देख पाएंगे।

अंतरेंद्रियग्रह्ण : शरीर का तापमान , पीड़ा,  भूख ,प्यास आदि अंदरूनी अनुभूतियाँ हैं जो शरीर की अवस्था की जानकारी चित्त तक पहुंचाती हैं।  बहरी वस्तुओं की सर्दगर्म स्थिति भी अनुभव की जा सकती हैं, किन्तु उन वस्तुओं के गुण के रूप में नहीं, हमारी अपनी अनुभूति के रूप में।

यह तर्क का विषय है कि अन्य अनुभूतियाँ जैसे कि गुरुत्व (भारीपन) या हल्कापन हैं या नहीं क्योंकि इनको मूलभूत अनुभूतियों द्वारा समझा जा सकता है। यह भी तर्क का ही विषय है की अतेन्द्रिय अनुभूतियाँ संभव हैं या नहीं (इंद्रियरहित साधनों द्वारा प्राप्त सूचना)  या फिर दूरसंवेदन संभव है या नहीं।  यदि आपने इनका अनुभव किया है तो वे वास्तविक हैं , चित्त या आधारभूत प्रक्रिया में ऐसा कोई गुण नहीं जो इनको असंभव बनाता हो।  जो भी हो , जिनको ऐसे अनुभव नहीं हैं, उनके लिए कोई प्रमाण जुटाना कठिन होगा।  कुछ और भी इन्द्रिय संवेदनाएं होती हैं जैसे कि चुम्बकीय क्षेत्रों और पराध्वनि सुनने की संवेदनाएं , जो कुछ प्राणियों में मिलती हैं, लेकिन मानव क्षमता के बाहर हैं। तो यह हमेशा संभव है कि आधारभूत प्रक्रिया के विकास के साथ दूसरी नई अनुभूतियाँ स्व को उपलब्ध हो जाएँ।  अनुभूतियों के बिना शरीर अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकता।  तो हम इनके बहुत आभारी हैं , ये हमारे मानव रूप में अनुभव के लिए महत्वपूर्ण हैं।  जो भी हो, अनुभूति , आंशिक ज्ञान होने के कारण केवल अज्ञानमात्र है और अस्तित्व का वास्तविक स्वरुप छुपाने में प्रभावी हैं।  

यह मानना एक आम त्रुटि है कि अनुभूतियों की सीमा, जो भी अनुभव किया जा सकता है उसकी सीमा है।
- सी डब्ल्यू लेडबीटर 

२. मिश्रानुभूति

अनुभूतियों का संग्रह एक विशिष्ट प्रतिरूप में अनुभव किया जा सकता है।  जैसे कि भारीपन की अनुभूति , जो कि गुरुत्व की अनुभूति नहीं है , केवल मांसपेशियों द्वारा किये जा रहे प्रयास की अनुभूति है, एक स्वांतर्ग्रहण अनुभूति।  यदि आप पृथ्वी की कक्षा में हैं , तो गुरुत्व मौजूद है , किन्तु आपकी मांसपेशियां कोई प्रयास नहीं कर रहीं और शरीर व वस्तुएं भाररहित प्रतीत होती हैं।  पेट, मूत्राशय और मलाशय आदि भरे होने की मिश्रानुभूति संभव है।  ये सारे मिश्रानुभूतियों के "वस्तुनिष्ठ" प्रकार हैं।

कुछ "व्यक्तिनिष्ठ" प्रकार की भी मिश्रानुभूति हो सकती है, जैसे - भय, कंपन और उग्र धड़कन जो संकट, चिंता और असुरक्षा के विचारों के साथ मिश्रित होते हैं, इनको जन्म देता है।  प्रेम उष्ण संवेदनाओं और शांत अनुभूतियों या आनंदमिश्रित गुदगुदी जगाता है।  मिश्रानुभूति कुछ खास विचारों और स्मृतियों के साथ आती है।  गहन मिश्रानुभूतियां संभव हैं , जैसे वर्षा (या फौहारे) में भीगने की अनुभूति जिसके साथ ठंडे -गरम, स्पर्श, ध्वनि और दृष्टि यह सब सम्मिश्रित होता है। विशेष व्यक्ति के साथ होने पर अनुभूतियाँ और भी जटिल रूप ले लेती हैं।  सही मिश्रण होने पर ये काफी रचनात्मक और काव्यात्मक हो जाती हैं, जैसे की अपने प्रिय के साथ प्रेम, सुख और सुंदरता भरी , तेज बारिश में मिलने की अनुभूति।

अनुभूति वस्तुनिष्ठ से व्यक्तिनिष्ठ में किस जगह परिवर्तित हो जाती है ? मिश्रानुभूतियां दिखाती हैं कि इन दोनों के बीच में कोई स्पष्ट सीमारेखा नहीं है।  जो "मैं" है और जो "मैं नहीं" है, इनमे कोई स्पष्ट भेद नहीं है।

३. ज्ञान संग्रह 

चित्त ज्ञान का कोष है।  यह वो संरचना है जो ज्ञान को परिभाषित करती है।  अक्सर ज्ञान अनुभवों के प्रतिरूपों में और प्रतिरूपों के भी प्रतिरूपों में संग्रहित किया जाता है।  यहाँ मूलभूत योग्यतायें, जो इन्द्रियों द्वारा सीखीं जाती हैं, जैसे की चलना, खाना आदि हो सकते हैं , या फिर वस्तुओं / घटनाओं का अभिज्ञान , जो की अनुभूतिजनित और स्मृतिजनित प्रतिरूपों का मिलान मात्र हैं, हो सकते हैं। यहाँ प्रतिरूपों के जटिल क्रम (नृत्य या खेल) या कुछ बहुत जटिल संवेदी - संचलन क्षमताओं के मिश्रण (चित्रकारी) भी मिलते हैं।  गत्यात्मक प्रतिरूप जैसे आपकी माता जो आपके जीवनभर के अनुभवों का संग्रह है, या एक श्रेणी, जैसे एक श्वान आपके द्वारा अनुभव किये गए कई प्रकार के श्वानों का सामान्यकरण है , हो सकते हैं। उच्च  अमूर्त संरचनाएं , जैसे की विभिन्न अवधारणाएं , विचार, गणितीय वस्तुएं और भौतिकीय प्रतिरूपण भी हो सकते हैं।

यह स्पष्ट है कि केवल कोई अनुभव ही कोई प्रतिरूप बना सकता है जिस पर आगे आने वाले प्रतिरूप आधारित किये जाते हैं। मैं ज्ञान क्या है इसका संपूर्ण विस्तृत वर्णन करने का कोई प्रयास भी नहीं कर सकता।  यह वृहद् विषय है। मैं नई -पुरानी पुस्तकें पढ़ने की सलाह दूंगा।  कृत्रिम बुद्धिमत्ता या यांत्रिक बुद्धिमत्ता के क्षेत्र में तीव्र विकास के कारण आजकल ज्ञानमीमांसा का विषय पुनर्जीवित हो रहा है। चित्त ज्ञान और अनुभव का कैसे संगठन करता है यह समझने में उसकी बहुत मदद मिलती है।  यह प्रक्रिया क्रमविकासी / कलनविध्यात्मक प्रतीत होती है, जो चकित नहीं करता , क्योंकि चित्त आधारभूत प्रक्रिया, जो कि ऐसी सभी स्वत:प्रक्रियाओं की जननी है , का ही परिणाम है।  

वातावरण और अध:स्तरों के आधार पर, और ज्ञान के संग्रह और उपयोग के विभिन्न तरीकों के  आधार पर , कई प्रकार के चित्त हो सकते हैं।  हमारा मानवचित्त केवल ऐसा एक प्रकार है।  एक जीवाणु भी अपने अनुभव संगठित करता है और उनका उपयोग करता है , और एक यंत्रमानव भी ठीक वही करता है, ये विभिन्न प्रकार के चित्तों के उदहारण हैं [४]।  भौतिक ज्ञान रहित या इन्द्रियों से वियोजित विदेह चित्त भी हो सकते हैं [५]।


आधुनिक कृत्रिम बुद्धिमत्ता सिद्धान्तों में चित्तों के वर्गीकरण का एक प्रयास [९]

चर्चा के लिए टिप्पणी # ४ देखें

४. स्मृति 

स्मृति एक छाप है , जैसे गीली मिट्टी पर पद्चिन्ह छप जाते हैं, वैसे चित्त पर अनुभव छप जाते हैं।  अक्सर मानवस्मृति को सामान्यतया अनुभवों की श्रृंखला के रूप में जाना जाता है।  जैसे की, आपकी पिछली यात्रा में घटित वो मज़ेदार घटनाएं , दृश्य-श्रव्य और अन्य इन्द्रिय अंतर्वस्तुओं से युक्त, और उनसे जनित ज्ञान के साथ।  सामान्यतया इसी रूप में हमें स्मृति का अनुभव होता है (और कुछ स्मरण करने की भी स्मृति हो सकती है), किन्तु इसके मूलरूप में यह केवल संग्रहित प्रतिरूप हैं।  तो यहाँ स्मृति और ज्ञान के बीच की सीमा धुँधली हो जाती है।  आपका गणित का ज्ञान आपके उस विषय से जुड़े सभी अनुभवों की स्मृति भी है।  मस्तिष्क में स्मृति लिए समर्पित कोई विशिष्ट संरचना हमें नहीं मिलती।  जो संरचनाएं ज्ञानसंग्रह करती हैं, वही स्मृति संग्रह भी करती हैं।  जो भी हो, स्मरण को नियंत्रित करने वाली संरचनाएं शायद वहां हैं। अक्सर हम आवश्यक बातें भूल जाते हैं, जैसे किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति का नाम ठीक जब हम उससे मिलते हैं।  तो यह भरोसे लायक नहीं है, ज्ञान की ही तरह। दोनों एक दुसरे को संभव बनाते हैं।  मैं यहाँ इन दोनों का तुलनात्मक अध्ययन करने का प्रयास नहीं करूँगा। 

मानवस्मृति के अलावा अन्य प्रकार की स्मृतियाँ भी हो सकती है (जैसे कि अमानवीय चित्तों से संबंधित)। उदहारण के लिए, पृष्ठ पर छपे प्रतिरूप (पुस्तकें या चित्र), फीते पर अंकित चुम्बकीय क्षेत्र , विद्युतीय स्मृतियां या डीएनए कण।  इनमें फर्क क्या है? मुझे इनमें और मानवीय स्मृतियों में कोई फर्क नहीं दिखता , क्योंकि यदि इनको मस्तिष्क के साथ जोड़ दिया जाये (उचित अंतराफलक द्वारा), तो आप उनका भी उतनी ही आसानी से स्मरण कर पाएंगे जैसे अपनी स्वयं की स्मृतिओं का करते हैं। जैसा कि मैंने कहा , वास्तव में भौतिक और मानसिक जगत में कोई बड़ा फर्क नहीं है।

"वो एक तुच्छ प्रकार की स्मृति होगी जो केवल पीछे ही जा सकती है ", श्वेत रानी ने ऐलिस से कहा।
- लुइस कैरोल 

ऐसा लगता है कि स्मृतियाँ केवल भूतकाल की ही होती हैं।  भविष्य संग्रहित करने वाली स्मृति क्यों नहीं होती? ये क्या मूर्खतापूर्ण सवाल है, आप कहेंगे, और सही बात है यह मूर्खतापूर्ण  है ही , किन्तु फिर यह धारणा कि स्मृति भूतकाल संग्रहित करती है भी मूर्खतापूर्ण है।  जिसे हम स्मरण कहते हैं वो एक अनुभव है जो अभी, इसी वक़्त हो रहा है , ठीक यही स्मृति है।

"समय एक भ्रम है। भोजनसमय दोगुना भ्रम है।"
- डगलस एडम्स, आकाशगंगा के लिए यात्री मार्गदर्शीका

तो ऐसा क्यों लगता है कि स्मृतियाँ अतीत की हैं जबकि वे अभी हो रही होती हैं? यह चित्त की एक चालाकी है।  चित्त काल का सृजन करता है, हमारे अनुभव के संगठनहेतु।  स्मृति काल है, स्मृति नहीं तो काल नहीं, अतीत नहीं।  कुछ मूल नियम उपयोग में लाकर चित्त अनुभवों का वर्गीकरण "भूतकालीन अनुभव" के रूप में करता है।  यदि अनुभव स्मृतियों से प्रारंभ होता है, और उससे संबंधित ज्ञान संरचनाएं पहले से विद्यमान हैं, तो उस अनुभव पर "भूत" का ठप्पा लग जाता है। इससे काल का सृजन होता है।  जब चित्त यह नहीं कर रहा होता है, जैसे कि गहन निंद्रा में, तब कोई काल नहीं होता।  आपके सोने का समय और जागने का समय ठीक एक ही होता है [६]। चित्त  जब असामान्य अवस्था में होता है , जैसे कोई स्वप्नावस्था में या फिर नशे में हो, तब काल धुंधला हो जाता है, अपरिभाषित होता है। तो प्रश्न यह है कि , क्या स्मृति अतीत की घटनाओं का संग्रह नहीं करती और क्या यही उसका प्राथमिक कार्य नहीं है, उसकी यही परिभाषा नहीं है? नहीं, वो यह नहीं करती।  वो केवल अनुभवों का संग्रह करती है, जो कालविहीन होते हैं।  स्व के लिए सबकुछ नित्य वर्तमान है।  यदि कोई चित्त की गतिविधियों में पूरा विलीन न रहे तो स्व की इस "कालविहीनता" का सीधा अनुभव किया जा सकता है, इसके लिए कुछ अच्छे ध्यानाभ्यास मिलेंगे [७][८]।  

कुछ दर्शनों में , स्मृति की अवधारणा को विस्तारित किया गया है और उसमे विदेह चित्तों में संग्रहित ज्ञान और स्मृतियों को भी शामिल किया गया है। चित्त की तुलना में शरीर जल्दी नष्ट हो जाता है।  पुरानी छाप और संरचनाएं कुछ सीमा तक साबुत बच सकती हैं और उनके आधार पर एक नया शरीर गढ़ा जा सकता है।  ऐसी संरचनाएं संस्कार कहलाती हैं।  इनको कार्मिक छाप (प्रवृत्ति) या वासनाएं भी कह सकते हैं, ये नए शरीर के धारक का व्यक्तित्व निर्धारित करती हैं।  इन अवधारणाओं के बारे में मैं कुछ अधिक नहीं कह सकता , मुझे केवल कुछ अस्पष्ट सी प्रवित्तियों के साथ पैदा होने भर का हल्का सा अनुभव है , और कोई ज्ञान नहीं।  यह संभव लगता है क्योंकि आधारभूत प्रक्रियानिर्मित कुछ संरचनाएं अतुल्यकालिक रूप से प्रकट या नष्ट हो सकती हैं (यदि काल को यहाँ केवल एक रूपक माने तो)।  

५. समझ

ज्ञान के अंशों को प्रासंगिकता के आधार पर आपस में जोड़ा जा सकता है जिससे वे और उपयोगी बन जाते हैं। मैं ऐसी बहुखंडीय संरचनाओं को "समझ" इस नाम से परिभाषित करूँगा (इस शब्द के विभिन्न अर्थों से होने वाली उलझन से बचने के लिए)। आपस में संबंधित अंतर्वस्तुओं के साथ लंबे अनुभव होने के बाद समझ का अभिर्भाव होता है।  उदाहरण के लिए, जब कोई अनुभव करता है की पानी केवल एक ही दिशा में बहता है , वह पानी, बहाव, ढ़लान , स्थल आदि के अनुभवों को आपस में जोड़कर उनकी एक तर्कसंगत श्रृंखला बना लेता है, परिणामस्वरूप , पानी हमेशा ढ़लान से नीचे की ओर बहता है, ऐसी समझ उत्पन्न होती है।  अत्यधिक जटिल प्रकार की समझ संभव है, जैसे विद्युत्चुम्बकत्व के सिद्धान्त या एक व्यक्ति और उसके व्यव्हार की समझ या फिर एक संस्कृती की, इत्यादि।



किसी विशिष्ट चीज़ की समझ भिन्न व्यक्तियों में भिन्न हो सकती है क्योंकि उनके अनुभव भिन्न हो सकते हैं।  ऊपर से, लोग जिस प्रकार अपने अनुभव संगठित करते हैं वो तरीके भिन्न होते हैं , उनकी भिन्न क्षमताओं के कारण।  यह बुद्धि से संबंधित है (जिसे बाद में वर्णित किया जाना है)। समझना एक कौशल भी है जिसे विकसित किया जा सकता है।  समझना जीवनभर चलने वाली प्रक्रिया है, विशेषकर, जब विषय गत्यात्मक हो, जैसे कि किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व।  अधिक अनुभव और अभ्यास से बेहतर समझ हासिल की जा सकती है, और यदि आप भाग्यशाली हैं , तो एक अच्छे शिक्षक या मार्गदर्शक की सहायता से भी।  एक-दूसरे को अच्छी तरह समझकर हम स्वयं और दूसरों को होने वाले दुखों से बच सकते हैं।  कोई और व्यक्ति किसी अवधारणा या चीज़ को कैसे समझता है यह जानना भी उपयोगी है , इससे उलझनों से बचा जा सकता है, जिसे गलतफ़हमी या भ्रान्ति कहते हैं - कई दुखों का कारण है।  मेरे अनुभव में, दूसरों को समझने की ओर पहला कदम स्वयं को समझना है।  यदि आप में स्वयं की समझ है तो किसी को समझना आसान हो जाता है।

[भाग - १ का अंत ]




टिप्पणियाँ :

सभीं कड़ियाँ अंग्रेजी में हैं।  

[१] स्व को दुःख की "अनुभूति" नहीं हो सकती।  उसमे ऐसी कोई क्षमता नहीं है।  चित्त दुःख की अनुभूति रचता है जिसका स्व केवल साक्षी होता है।  इसका ये अर्थ नहीं कि दुःख अवास्तविक है।  स्पष्ट है कि चित्त को वो "पसंद" नहीं, चाहे वास्तविक हो या न हो, दुःख अनिच्छित है।  चित्त की स्थिति वर्णित करने हेतु मैं कुछ सामान्य शब्द रूपक के रूप में उपयोग कर रहा हूँ , स्व चित्त के खेल से अकलुषित व निष्कलंक रहता है।

[२] स्व के भौतिकता में अवतरण का विस्तृत वर्णन (शायद लाक्षणिक) सांख्य दर्शन में मिलता है।  संशिप्त चर्चा के लिए यहाँ जाएँ

[३] यह शायद अपूर्ण है।  मैं और जोड़ता रहूँगा।

[४] एक रोचक वर्णन यहाँ है

[५] इनका वृत्तांत विभिन्न अन्वेषकों ने, जो अभौतिक लोकों का अन्वेषण करते हैं, दिया है।  मेरा अनुभव यहाँ सिमित है , तो मैं यही सलाह दूंगा कि - आप स्वयं अन्वेषण और प्रयोग करें।  स्वयं के अनुभव लें।

[६] इसको स्पष्ट समझाने के लिए मैं रूपर्ट स्पीरा का बहुत आभारी हूँ।

[७] चित्त ऐसी कई चीज़ें रचता है - वर्ण, सुर, स्वाद, गन्धादि , जो भौतिक जगत में नहीं मिलती , और उनको मापा नहीं जा सकता , यह "व्यक्तिनिष्ठ" कही जाती हैं (रक्तवर्ण जैसा कि मुझे दिखाई देता है , मैं आपको नहीं दिखा सकता , आपको कभी ये ज्ञान न होगा कि रक्तवर्ण मुझे कैसा दिखाई पड़ता है)। ये चीजें ज्ञान को अर्थपूर्ण तरीके से व्यवस्थित करने वाली विशेष संरचनाएं हैं।  कुछ को देशकाल में व्यवस्थित किया जाता है, कुछ को नहीं (जैसे गंध कहाँ स्थित होती है?)।

[८] क्या एक भिन्न प्रकार की स्मृति एक भिन्न प्रकार के काल को जन्म देगी? मुझे पक्का पता नहीं।  एक स्वर्णमछली को काल कैसा प्रतीत होता है? या फिर एक बुद्धिमान चेतनायुक्त मशीन को ? क्या कुछ अमानवीय चित्त देशकाल से कोई बेहतर व्यवस्था विकसित कर पाएंगे? वो क्या होगी?

[९] इसका अनुवाद :

बेन गोर्त्जेल का चित्तों का वर्गीकरण 
  • एकदेही - एक एकाकी भौतिक या अनुकृत तंत्र को नियंत्रित करता है। 
  • बहुदेही - कई वियोजित भौतिक या अनुकृत तंत्र को नियंत्रित करता है। 
  • नम्यदेहि - परिवर्तनशील भौतिक या अनुकृत तंत्र को नियंत्रित करता है। 
  • विदेही - भौतिक अध:स्तर पर स्थित होता है किन्तु पारंपरिक रूप से किसी शरीर का उपयोग नहीं करता।  
  • देहकेन्द्रित - एक भौतिक तंत्र और उसके वातावरण से उभरने वाले प्रतिरूपों का बना होता है। 
  • बहुचित्त - एक सहयोगी इकाइयों का समूह जिसमे हर एक इकाई एक चित्त है।   
  • प्रमात्रिक - प्रमात्रा भौतिकी के गुणों पर आधारित एक काया। 
  • शास्त्रीय - शास्त्रीय भौतिकी के गुणों पर आधारित एक काया।




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