जैसा की हमने पिछले लेखों में देखा , अस्तित्व का कोई रहस्यमय गुण स्व को जन्म देता है। अब हम अस्तित्व के और भी अधिक रहस्यमय गुण का अन्वेषण करेंगे , जो है अनुभवक्रिया। यह अस्तित्व में होने वाली कोई यादृच्छिक प्रक्रिया मात्र नहीं है, इसमें कुछ रोचक गुण है। अनुभवक्रिया अस्तित्व के ऊपर संस्कार (छाप) बनाती है और विभिन्न संरचनाओं के रूप में अपना आत्मसंगठन भी करती है [८]। यह ऐसा कहने के बराबर होगा कि अस्तित्व अपना ही आत्मसंगठन करता है। दुसरे शब्दों में, वह रचयिता है। इस तरह जो संरचनाएं उभरती हैं वे रचना है।
आधारभूत प्रक्रिया
जिस प्रक्रिया के कारण ये सारा आत्मसंगठन हो रहा है हम उसे आधारभूत प्रक्रिया का नाम देंगे [२]। यह प्रक्रिया शुद्ध यादृच्छिकता में से सूचना का सृजन करती है। दुसरे शब्दों में, एन्ट्रापीक ऊर्जा घटाती है। यह अव्यवस्था और यादृच्छिकता की बजाय जटिलता और व्यवस्था का पक्ष लेती है। वह ऐसा क्यों करती है? वह वास्तव में साशय कुछ भी नहीं करती है। यह प्रक्रिया आवश्यकताजनित है [३]। जो भी संरचित या व्यवस्थित होता है वो ही अनुभवक्रिया का कारण है, अरचित अस्तित्व में से कोई अनुभव उत्पन्न नहीं होते।
आधारभूत प्रक्रिया स्वभक्षी है। अर्थात , जो संरचनाएं स्वयं को संवर्धित करती हैं या नई संरचनाएं बनाती हैं वे और विकसित होती जाती हैं। यह भी स्पष्टतयाः आवश्यकताजनित है। जो संरचनाएं अपनी पुर्नरचना नहीं करतीं या दुरुस्ती नहीं करतीं वे नष्ट होती जाती हैं या फिर अधिक जटिल नहीं बन पाती। इस प्रकार , संगठन या रचना अनुभवक्रिया का स्वाभाविक परिणाम है। इसका "कर्ता" कोई व्यक्ति या चीज़ नहीं है। इसका कोई निश्चित कारण या प्रयोजन नहीं है। ये प्रक्रिया होती है क्योंकि कुछ और नहीं हो सकता , निष्क्रियता भी नहीं।
ऐसा लगता है कि इसके विरुद्ध एक दूसरी प्रक्रिया भी समानांतर चल रही है , संरचनाओं को नष्ट करने की, या एन्ट्रोपी में वृद्धि की। जो भी रचित होता है , कभी न कभी नष्ट होता है। यह नश्वरता है। गौर से देखें तो, यहाँ केवल आधारभूत प्रक्रिया ही है , कोई दूसरी नहीं। आधारभूत प्रक्रिया अनुभवक्रिया ही है , जो एक विशेष दृष्टिकोण से रचनात्मक प्रक्रिया के रूप में दिखती है। हम इसे आत्मसंगठन के रूप में देखते हैं, जबकि यहाँ कुछ विशेष नहीं हो रहा होता है , यह सब नित्य अनुभवक्रिया है , नित्य नश्वरता है , क्योंकि अनुभवक्रिया कभी रूकती नहीं, नहीं तो वो कोई क्रिया नहीं होगी , यदि रुके तो पवित्र अस्तित्व हो जाएगी। संरचनाएं अपनेआप उभरती - गिरती हैं , और जब वे उभरती हैं , हम उन्हें आधारभूत प्रक्रिया द्वारा उत्पन्न कह सकते हैं। यह बस दृष्टिकोण के चयन पर ही निर्भर है।
आधारभूत प्रक्रिया को समझने के लिए बहते पानी की सतह पर उभरने वाले छोटे-छोटे भंवर एक अच्छा रूपक हैं। ये नश्वर संरचरायें हैं, और मोटे तौर पर देखें तो वहां कुछ नहीं है , बस बहता पानी है। पानी की गति-ऊर्जा कभी-कभी उसका थोड़ा अंश उलटी या घुमावदार दिशा में मोड़ देती है , कोई साशय रचना नहीं हो रही होती। पानी की तुलना में भंवर संरचनानुमा दिखाई देते हैं, क्योंकि इनमे कुछ संगठन है, एन्ट्रोपी कम है। वे विलीन हो जाते हैं, किन्तु बहाव नहीं रुकता।
आधारभूत प्रक्रिया का एक उदाहरण प्राकृतिक चयन के माध्यम से प्रजातीकरण की प्रक्रिया है, यह आधारभूत प्रक्रिया का एक छोटा सा पहलू है। डीएनए कण के विकास से लेकर जटिल जीवों तक , यह केवल आधारभूत प्रक्रिया है जो भौतिक जगत पर कार्यरत है और विभिन्न संरचनाओं की रचना कर रही है। हम , जिस रूप में इस भौतिक जगत में दिखाई पड़ते हैं, बस एक संरचनामात्र है , और कुछ नहीं। (और दुर्भाग्य से , नश्वर भी :) )
आधारभूत प्रक्रिया चित्त , मस्तिष्क, शरीर, जगत और हर प्रकार की वस्तुगत चीजों की रचना का कारण है। ये केवल संरचनाएं हैं। कुछ संरचनाओं में निहित बंधनो के कारण वे कलनविधिवत विकसित होती हैं। यह भौतिक जगत की गणितीय अनुरूपता का कारण है। भौतिक जगत एक संरचना है जो नियमबद्ध (कलनविधिवत) और प्रसम्भाव्यात्मक (सांख्यिकीय) है, और इस प्रकार भविष्यवचनीय है , अतिलघु पैमाने के अवाला, जहाँ सांख्यिकीय नियम लागू नहीं होते, यह संरचना फिर अव्यक्त अस्तित्व के रूप में दिखाई देती है (या उस ओर इशारा करती है)। अर्थपूर्ण अभौतिक संरचनाएं या "अन्य जगत" या और भी अजीबोगरीब चीजें जैसे कि शरीररहित मानस आदि हो सकते हैं या नहीं ये तर्क का विषय है। आधारभूत प्रक्रिया में ऐसा कुछ नहीं है जो इन्हें असंभव बनाता हो, तथापि, यदि ऐसा कुछ आपके अनुभव में नहीं है तो वो अवास्तविक होने के बराबर है। संभावनाओं का अन्वेषण करें , वे अनंत हैं [४]।
मानव ज्ञान की धारा एक अयांत्रिक वास्तविकता की ओर बढ़ रही है। जगत एक महामशीन की बजाय एक महाविचार की तरह लगने लगा है। पदार्थ जगत में मनस अब कोई अपरिचित नहीं लगता। हम ऐसा सोचने लगे हैं की मनस इस जगत का रचयिता और नियंत्रक है।
- सर जेम्स जीन्स, रहस्यमय जगत (१९३०), पृ - १३७
चित्त - अंतर्वस्तुओं का एक संग्रह
जैसा कि हमने देखा, अन्तर्वस्तुएँ अनुभव में उभरती हैं। इसके बाद वे ज्ञान के रूप में संगठित हो जाती हैं (जो एक व्यवस्थित अनुभव है , अनुभव के बिना ज्ञान संभव नहीं)। ज्ञानांश जो साथ में सही जुड़ते हैं , समझ बन जाते हैं , जो कि फिर एक संरचना ही है [५]। अनुभव संस्कार रूपी छाप छोड़ जाते हैं, इस तरह की संरचनाएं स्मृति रचती हैं , जो एक अजीब चीज़ है यदि आप सोचें तो। इसमें एक "सामयिक" गुण है।
यह आत्मसंगठन और विकसित होता है और एक महासंरचना उभरती है , जिसे हम चित्त कहेंगे, जो अंतर्वस्तुओं और संगठनकारी प्रक्रियाओं का संग्रह है। (सूचना , स्मृति और निर्देशक्रम युक्त एक संगणक इसकी अच्छी उपमा होगा)। आधारभूत प्रक्रिया की अंशनुकृति होने के कारण , ज्ञान भी स्वभक्षी है , यानि अधिक ज्ञान और अधिक ज्ञान की ओर ले जाता है और इन संगठनकारी प्रक्रियाओं को और ठोस बनाता है। उदाहरण के लिए, तर्क कौशल और विवेकशीलता ना केवल विद्यमान ज्ञान को सुसंगठित करते हैं , ज्ञानक्षमता भी बढ़ा देते हैं। गणित का ज्ञान भौतिकी की बेहतर समझ लाता है। जनव्यवहार का ज्ञान बेहतर जनसंबंधों में सहायक बनता है , इत्यादि।
चित्त एक महावरदान है। मेरे अनुभव में , इससे अधिक जटिल, अद्भुत और सुन्दर दूसरा कुछ भी नहीं है। यह विराट है और उपयोगी भी है। यदि आप ज्ञानपथ पर हैं, तो यही एक अस्त्र काम आएगा, इसकी धार तेज करना लाभकारी होगा। बिना चित्त के कोई ज्ञान या समझ संभव नहीं है , और ज्ञान का आदानप्रदान भी नहीं हो सकता। यह विराट है , किन्तु सिमित है। इसे देखा जा सकता है , अनुभव किया जा सकता है , सो यह एक वस्तु मात्र है (आख़िरकार वो आधारभूत प्रक्रिया की ही उपज है)। वस्तु होने के कारण यह नश्वर है , बहुत कम समय तक टिकता है , और इस वजह से इसका पूरा उपयोग करना अतिमहत्वपूर्ण है।
क्योंकि ज्ञान अशुद्धता है [६], और चित्त उससे भरा है , चित्त स्व पर एक आवरण की भांति है। स्व चित्त के पीछे छुप जाता है , और मान लेता है की वह स्वयं चित्त ही है ! यह तो एक बुरी खबर है , अच्छी खबर ये है कि यदि अच्छी तरह से प्रशिक्षित और विकसित किया जाये तो चित्त ही आपको स्व तक वापस ले जा सकता है। इसमें स्व को उसकी पूर्ण महिमा के साथ फिर सामने प्रकट करने की क्षमता है। जब आप स्व पर लौट आते हैं तो चित्त अनुभवक्रिया का एक अद्भुत साधन बन जाता है।
चित्त व मस्तिष्क
मस्तिष्क, एक शरीर जिसमे वो रहता है और भौतिक जगत जिसमे शरीर रहता है, इन सब की भी रचना का कारण आत्मसंगठन है। क्या यह बात अजीब नहीं, क्या ये ठीक उल्टा नहीं होना चाहिए - जगत-शरीर-मस्तिष्क-चित्त-स्व-अस्तित्व इस क्रम में? यह एक अच्छा प्रश्न है और महत्वपूर्ण प्रश्न है। संक्षेप में - इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता , सब एक है [१]। जगत से अस्तित्व की ओर ले जाने वाली और अस्तित्व से जगत की ओर ले जाने वाली प्रक्रिया एक ही है। (हमारी जानी पहचानी - आधारभूत प्रक्रिया)। करणीय दिशा हमारा दृष्टिकोण तय करता है [७]। वह दिशा एकांगी नहीं है, दृष्टिकोण से दिशा परिभाषित है। इस समय , मैंने अस्तित्व से शुरुआत करना तय किया है , क्योंकि , जैसी हमने चर्चा की थी , यही एक जगह है जहाँ से शुरुआत हो सकती है। आप अभी जहाँ हैं वहाँ से शुरू करें, स्व के ठोस धरातल से , जो सर्वाधिक निश्चित अनुभव है।
टिप्पणियां :
[१] विस्तृत उत्तर शायद कई पृष्ठ भर देगा। तो किसी दिन मैं उसे किसी और लेख में वर्णित करूँगा।
[२] मैं थॉमस कैम्पबेल का उनकी आधारभूत प्रक्रिया की शिक्षा के लिए अतिआभारी हूँ। मैंने यह शब्द और विचार जस का तस उपयोग कर लिया है। देखें उनकी किताब इस कड़ी पर।
[३] "आवश्यकताजनित" से मेरा आशय है कि कुछ और होने की कोई संभावना नहीं होती। यह स्वचलित होती है , कारण या कर्ता आवश्यक नहीं होता। यह होता है क्योंकि यही हो सकता है।
[४] ऐसी संभावनाओं का अन्वेषण करने के कई मार्ग हैं , इन्द्रियजनित अनुभूतियों को त्याग कर भौतिक जगत की पकड़ से छूटना उनमे से एक है। इस विषय पर और चर्चा , और वास्तविकता क्या है - जैसे प्रश्नोत्तर , बाद में .......
[५] "संगठन" और "संरचना" का यहाँ एक ही अर्थ में प्रयोग किया जा रहा है। इन लेखों में इनका अर्थ एक ही है - कम एन्ट्रापी युक्त कोई चीज़।
[६] इस पर चर्चा के लिए पिछला लेख देखें।
[७] यदि आप दूसरा दृष्टिकोण लेना चाहें (जगत->चित्त), तो कोई मुश्किल नहीं होनी चाहिए। बस कुछ कठिन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए तैयार रहें , जैसे की जगत का शून्यता से उद्गम और मानसिक गुण (चेतना सहित) जो बिना किसी ठोस कारण द्वारा प्रतीत होते हैं।
[८] पारंपरिक रूप से और उपमा स्वरुप, अस्तित्व और अनुभवक्रिया एक युगल के रूप में वर्णित किये जाते हैं , विभिन्न शब्दावलियों में जैसे कि - पुरुष और प्रकृति (सांख्य), शिव और शक्ति (शैव) आदि। स्पष्ट है , संतान यह सारी रचना है। दर्शन में यह विद्यमानता और चयलमानता है, या पश्चिमी नव आध्यात्मिकता में चेतना और ऊर्जा है। शायद इन सबके अर्थ व्याख्या पर निर्भर हैं , किन्तु मेरे विचार से ये लगभग समान हैं।
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