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साल्वाडोर डाली द्वारा |
अनुभव रूपी अस्तित्व
एक बात बहुत निश्चित है - अस्तित्व है। वास्तव में केवल यही मेरे लिए निश्चित है। मुझे और कोई ज्ञान नहीं है , और कोई ऐसा अनुभव नहीं है जो इतना निश्चित लगता हो। बस कुछ है। उस "कुछ" को में अस्तित्व इस शब्द से परिभाषित करता हूँ। ये बस एक शब्द है जो उस निश्चितता का सूचक है। अस्तित्व एक प्रक्रिया द्वारा गतिमान हो रहा है , उसे मैं अनुभवक्रिया कहूंगा, और फिर अनुभव यह शब्द इस प्रक्रिया का संज्ञा रूप है। मैं कितना भी प्रयास करूँ , मैं इसका खंडन नहीं कर सकता , नकार नहीं सकता , और कोई भी ऎसा नहीं कर पायेगा। तो हम यहाँ एक बहुत दृढ़ आधार पर हैं। यह एक अच्छी शुरुआत है , शायद यहीं से कोई भी शुरुआत हो सकती है।
अस्तित्वनाद या अस्तित्व के परिवर्तन अनुभवक्रिया को जन्म देते हैं। बस इतना ही कुछ है , बाकि सब कुछ विवरण मात्र है। मुझसे मत पूछिये के ये अस्तित्व क्या चीज़ है, और उसमे ये नाद परिवर्तनादि हो क्यों रहा है , कैसे यह सब हो रहा है और क्यों ..... मुझे कोई ज्ञान नहीं इसका। महान ऋषि और पंडित इस बारे में क्या कहते हैं ये जानने के लिए तत्वविज्ञान की कोई अच्छी किताब पढ़ लें। मैं आपको आश्वासन देता हूँ की ये कोई नहीं जानता।
अस्तित्व में आप कुछ भी जोड़तोड़ कर दें या फिर इसको किसी और रूप में देखने प्रयास करें तो वो दूषित ही होगा, साफ़ नहीं। यह इतना आधारभूत है कि इसकी भाषाई व्याख्या नहीं की जा सकती, इसको बस शुध्द रूप में, अपरोक्ष रूप में अनुभव किया जा सकता है। न्यूनतम कहें तो, वह अनुभव आनंददायी होता है। अस्तित्व में स्वयं को अनुभव करने की क्षमता है, और यह अनुभव मेरा अब तक का सबसे अद्भुत अनुभव रहा है।
अस्तित्व परम है, विद्यमान है, या फिर सिर्फ एक अनुभव है - यह एक तर्क का विषय है। क्या अस्तित्व के बिना अनुभवक्रिया हो सकती है? क्या अनुभवक्रिया के आभाव में अस्तित्व रहेगा? चलो, अभी मैं इस मुर्गी और अंडे की पहेली को टाल देता हूँ यह कहकर कि अस्तित्व प्राथमिक है और उसमे अनुभवहीन स्थिति में रहने की क्षमता है। यद्यपि मैंने अनुभवहीनता का कभी अनुभव नहीं किया , और आप समझ सकते हैं कि यह संभव नहीं है , विरोधाभासी है। यह एक ऐसी जगह है जहां साधारण मानवीय समझ की क्षमता समाप्त हो जाती है। अंततः सब एक है, कोई दूसरा नहीं है, अद्वितीयता है , और यही सबसे अर्थपूर्ण है [१]। तो अस्तित्व यह शब्द सबकी एकता इंगित करता है। इसका दो में विभाजन (दूसरा अनुभवक्रिया) केवल सुविधा के लिए है।
ऐसा प्रतीत होता है की कोई अनुभवकर्ता इस अनुभवक्रिया में लिप्त है। अब हमने एक और वस्तु रच दी है। इसको स्वयं या स्व इस शब्द से परिभाषित किया जा सकता है। जब भी मैं "मैं" कहता हूँ उसका अर्थ यही अनुभवकर्ता है। स्वयं विद्यमान है या नहीं यह एक तर्क का विषय है। मेरे अनुभवानुसार , स्वयं का भी अनुभव हो सकता है। और स्वयं के अनुभव के बिना भी अनुभव हो सकते हैं (अनात्मानुभव)। तो क्या अनुभवकर्ता अनुभवक्रिया का स्त्रोत है ? मैं ऐसा नहीं कहूंगा , क्योंकि मैंने अनुभवक्रिया को पहले ही अस्तित्व की एक प्रक्रिया के रूप में परिभाषित कर दिया है। तो कोई कह सकता है कि अनुभवक्रिया का स्त्रोत अस्तित्व है और अनुभवकर्ता (स्वयं) अस्तित्व में एक आकृतिमात्र (अंतर्वस्तु) है, अनुभवक्रिया की ही एक रचना है।
ऐसा कुछ भी जो अनुभव किया जा सकता है अंतर्वस्तु इस शब्द द्वारा परिभाषित किया जा सकता है। अंतर्वस्तुयें अनुभव में उभरती हैं। ये या तो अनुभूतियाँ होती है (अधिकतर इन्द्रियजनित अनुभूतियाँ [२]), या विचार, संवेदनाएं, भावनाएं , स्मृतियाँ , और इस तरह की सारी चीज़ें [३]। क्या अनुभव का कारण अंतर्वस्तुयें हैं ? यह प्रश्न चींटियों बिल है, और इसमें हाथ डालने की बजाय मैं इतना कहूंगा कि अंतर्वस्तुयें और अंतर्वस्तुओं का अनुभव एकसमान है, अभिन्न है। विभिन्न अंतर्वस्तुयें विभिन्न अनुभवों के रूप में उभरती हैं।
अब हमने सारे मूल सिद्धांतों को परिभाषित कर दिया है [१०]। ये परिभाषाएं मात्र हैं (मनगढंत बातें), इनका सत्य से कोई सीधा संबंध नहीं है। (सत्य इस शब्द की मैं किसी और लेख में परिभाषा और चर्चा करूँगा)। यदि कोई चीज़ आपके अनुभव में नहीं है तो उसको सत्यासत्य के तराजू में नहीं तोला जा सकता। आपको अपने स्वयं के अनुभव द्वारा इन सभी परिभाषायों और अवधारणाओं की सत्य से तुलना करनी होगी, देखें कि वे सत्य से कितनी करीब हैं। यदि नहीं, तो इन्हें कचरे में फेंक दें, अपनी स्वयं की परिभाषाएं बना लें।
ज्ञान और उसका महत्व
ज्ञान लाभ केवल एक ही मार्ग से होता है, अनुभव के द्वारा, ज्ञानार्जन के लिए कोई भी दूसरा तरीका नहीं है।
- स्वामी विवेकानन्द
ज्ञान अनुभव की एक संगठित संरचना है। यह मेरी पसंदीदा परिभाषा है [४]। कोई चीज़ जानना उसे अनुभव करना है , उसे जीना है। इस तथ्य के बारे में कोई संदेह नहीं हो सकता है। यदि कुछ आपके अनुभव में है , तो वो आपका ज्ञान भी है , और जैसे ही ज्ञान होता है, उसको अपने पिछले ज्ञान के प्रकाश में देखा जा सकता है , इसी को समझना कहते हैं। तो समझ एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा हम अनुभवों की पहेली सुलझाते हैं। यह एक बड़ी क्षमता है, बहुत ही दुर्लभ।
समझ सही विचारों को जन्म देती है और सही विचार सही कर्मों को। हमारे कर्म ही हमारे जीवन को गठित करते हैं , केवल वही हमारी परिस्थिति का कारण हैं - सुख या दुःख। इस प्रकार, ज्ञान और समझदारी आपार रूप से महत्वपूर्ण है। हमारा संपूर्ण जीवन ज्ञान की नींव पर खड़ा है। एक अस्थिर नींव का परिणाम दुखों से भरा जीवन है। कुछ अनुभव करने और उसे जानने की क्षमता हमारी सबसे बड़ी क्षमता है। एक बड़ा वरदान है।
ज्ञान के बिना हमारे अनुभव बस कुछ यादृच्छिक और अव्यवस्थित घटनाओं का गुच्छा मात्र लगेंगे। हममें अपने अनुभवों को व्यवस्थित करने की क्षमता है। यह एक कला, एक कौशल भी है , अपने अनुभवों को उपयोगी ज्ञान में बदलने की, और उसका उपयोग करने की। हममें कुछ प्राचीन एवं प्राथमिक प्रवृत्तियाँ होती है जो इस गतिविधि को चलाती हैं। जानवरों में भी कुछ हद तक यह क्षमता होती है। तथापि अधिकतर यह कला सीखनी पड़ती है। इस प्रक्रिया में कई बाधाएँ आ सकती हैं , उनसे बचना चाहिये और हमको अपने अनुभवों को संगठित या व्यवस्थित करने के लिए तर्क-विवेकादि साधनों का उपयोग करना चाहिये। यह प्रक्रिया कभी रुकती नहीं, आजीवन चलती है , क्योंकि अनुभव कभी रुकते नहीं, समाप्त नहीं होते। यदि आप किसी को कहते सुनें कि उसे अब हर तरह का ज्ञान हो गया है , जानने को कुछ बचा नहीं, तो मान लें वो मृत है।
परंपरागत रूप से, चीजों को तीन प्रकारों में विभाजित किया गया है - ज्ञात, अज्ञात और अज्ञेय। ज्ञात वो है जो आपके अनुभव में थीं और उसकी संरचना में अच्छी तरह से जमती हैं। अज्ञात वो प्रकार है, जो अभी तक आपके अनुभव में नहीं हैं, लेकिन आप इसके बारे में सवाल पूछ सकते हैं और कोई अनुभव ढूंढ सकते हैं जो उसको ज्ञात में बदल देगा। अज्ञात में ज्ञात होने की संभावना होती है। अज्ञेय वो है जिसका अनुभव संभव नहीं है , तथापि हम उसके बारे में सवाल कर सकते हैं [५]।
अब हम ऐसी जगह पर आ पहुँचे हैं जहाँ हम ये पूछ सकते हैं कि क्या है जो जाना जा सकता है ? क्या ज्ञानार्जन संभव भी है , या यह प्रक्रिया एक परिकल्पनामात्र है ? यदि किसी चीज़ का अनुभव संभव है तो उसका ज्ञान भी संभव है। आप देखेंगे कि यह तथ्य ज्ञान की उपरोक्त परिभाषा का सीधा परिणाम है। तो यह प्रश्न बहार फ़ेंक देतें हैं और दार्शनिकों को उससे खेलने देतें हैं। तो वास्तव में यहाँ जानने के लिए है क्या , मुझे पक्का नहीं पता। यदि आप एक प्रश्न पूछते हैं , और कोई अनुभव उसका उत्तर दे देता है, तो वही ज्ञान की विषयवस्तु बन जाता है। यदि आप कोई प्रश्न भी करने में असमर्थ हैं, तो वो नहीं जाना जा सकता। सही प्रश्न करना यही इसकी कला है।
तो क्या इसका मतलब है, यदि मैं कुछ अनुभव नहीं कर सकता तो उसका ज्ञान ही न होगा ? इस वक़्त मुझे कहना पड़ेगा कि नहीं , नहीं होगा। यहाँ हम अप्रत्यक्ष या अनुमानित "ज्ञान" के प्रदूषित क्षेत्र में पहुँच गए हैं। उदहारण के लिये , आप कह सकते हैं कि , आपको मुम्बई इस नगरी का ज्ञान है , ऐसी कोई जगह है लेकिन वो आपने कभी देखी नहीं, कभी गए भी नहीं। लेकिन आप निश्चित हैं आप जानते हैं क्योंकि आपने उसके बारे में पढ़ा है, चित्र, चलचित्रादी देखे हैं, और वहाँ से लौटे लोगों से भी मिले हैं। यह प्रत्यक्ष अनुभव नहीं है , लेकिन फिर भी आप जान गए। आप जब चाहें अंतर्जाल पर जाकर, कोई किताब खोलकर उसका सत्यापन कर सकते हैं , सही? नहीं..... आपको केवल पढ़ने, चित्रों को देखने और लोगों से बात करने का अनुभव है। आपको केवल इन्ही का ज्ञान है, आपको मुंबई का कभी ज्ञान हुआ ही नहीं।
मैं यहाँ पर अड़ा रहूँगा और कहूंगा कि अप्रत्यक्ष ज्ञान जैसी कोई चीज़ नहीं होती। उपरोक्त परिभाषानुसार , ज्ञान अनुभव से ही आता है। आप जिसके बारे में कह रहें हैं वो जानकारी है , सूचनामात्र है। सूचना हमेशा ज्ञान की ओर इशारा करती है , लेकिन वो ज्ञान नहीं होती। इसको समझने के लिये हम सूचना के सुस्थापित विज्ञान और सिद्धांत की शरण लेते हैं और इसको एक अनुभवात्मक संरचना के रूप में परिभाषित करते हैं। इस संरचना का उत्क्रम माप (उपयोगी या एंट्रोपिक ऊर्जा) उसके परिवेश की तुलना में कम होता है। यह संरचना हमेशा किसी न किसी अनुभव को इंगित करती है , अनुभव से सम्बंधित होती है। यह संबंध ही उसका अर्थ कहलाता है।
उदाहरण के लिए, एक बर्तन में अक्षर भर लें (लिखे हुए) और उसे अच्छी तरह हिला लें और उन्हें बाहर उंडेल दें। अगर हम अक्षरों के साथ हमारे पिछले अनुभवों के आलोक में इन्हें समझने की कोशिश करें तो पाएंगे कि उनका कोई अर्थ नहीं निकलता (अव्यवस्थित अक्षर कोई अन्य ज्ञान प्रदान नहीं करते सिवाय इसके कि आप जानते हैं कि वहाँ चारों ओर बिखरे हुए अक्षरों भर हैं)। अब कुछ अक्षर जोड़कर अपने मित्र का नाम बना लें। अब आपने इसकी संरचना बना दी है , उत्क्रम माप घटा दिया है और अब उसका अर्थ निकलता है , उसमे अब एक सूचना है, जो आपके एक प्रत्यक्ष अनुभव की ओर इशारा करती है (मित्र की ओर)। कहना आवश्यक नहीं कि यह अक्षरों की संरचना आपका मित्र साक्षात् नहीं है, न ही मित्र का ज्ञान है , एक इशारा, एक सम्बन्ध मात्र है। सूचना को मापा जा सकता है (बिटों में), तो हम यहाँ ठोस धरातल पर हैं , किसी परिकल्पना में नहीं. यह ज्ञानार्जन का एक उपयोगी साधन है।
सूचना की सही व्याख्या विद्यमान ज्ञान या दूसरी सूचनाओं के प्रकाश में ही की जानी चाहिये , अन्यथा ये आनुभविक रचनाएँ केवल अनुपयोगी आकृतियां भर हैं।
नक्शा क्षेत्र नहीं होता।
- एक लोकप्रिय कहावत
मेरे अनुभव में, कई लोग ज्ञान और सूचना एक ही चीज़ है, इस भ्रान्ति में रहते हैं। यह गंभीर स्थिति है , यहाँ तक की विद्यालयों में शिक्षक तक ये सोचते हैं कि वे अपने छात्रों को ज्ञान प्रदान कर रहें हैं , जबकि वास्तविकता ये है कि वे बच्चों को केवल कुछ वाक्य रटा रहें हैं , किसी और के लिखे हुए, किसी और ही के अनुभवों के बारे में। नतीजा यह है कि छात्रों की पीढ़ियां दर पीढियां जब शालाओं से बहार आती हैं तो उनमे ज्ञानाभाव होता है, विश्लेषण का कौशल नहीं होता , बस सर शब्दों से भरा होता है। जिन मामलों में पूरी तरह से आत्मपरक (स्वयं के) अनुभवों की अत्यावश्यकता होती है (जैसे कि आध्यात्मिक विषय) वहाँ स्थिति बद्तर है , यहाँ ज्ञान केवल अपरोक्ष रूप में ही मिल सकता है। होता क्या है कि छात्र यह सोचता है कि वह सब कुछ जानता है, सिर्फ इसलिए कि कुछ महान ग्रंथों को पढ़ लिया है और कुछ महान गुरुओं से सुन चुके हैं।
कोई बड़ी तोप कुछ कह दे तो वो सच ही होगा, और क्योंकि वो सच है, मैं अब सच का ज्ञाता हूँ। ऊपर से, ठीक ऐसा ही उस महान ग्रंथ में भी लिखा है , सो पक्का हो गया। क्योंकि वो ग्रंथ ५००० वर्ष पुराना है, ये इसके सच होने का प्रमाण है। बस अब मैं ये जान गया हूँ, मैं इतना मेघावी हूँ ! जी नहीं ...... मैं मूर्ख हूँ , अज्ञान के कुएं में गिर गया हूँ। मेरी प्रगती की अब कोई आशा नहीं। मैंने वास्तव में क्या किया है कि, मुझे कुछ जानकारी मिली है और इस से ताश के पत्तों का घर बना दिया है, बेतुके और विसंगत तर्कों का प्रयोग करके उसे ज्ञान कह दिया। सही सोचने में विफल रहा , सूचना और ज्ञान का भेद नहीं कर सका , और मेरे अभिमान और बुद्धिमान दिखने इच्छा ने मुझे अंधा कर दिया। मुझमे विश्लेषण कौशल्य है ही नहीं। परिणाम ये है कि , पहले मैं बस अज्ञानी था , सर खाली था , अब वो गोबर से भर गया है। कोई बहुत अच्छा परिणाम नहीं है , है क्या ? [६]
यदि आप ज्ञानमार्ग पर हैं [७], तो उपयोगी ज्ञानार्जन की कला सीखना बेहद ज़रूरी है। ये गुण लाभकारी हैं - समालोचनात्मक सोच , अज्ञेयवादी सोच , सुसंशयात्मकता , जिज्ञासा, विवेक , तर्ककुशलता , खुला दिमाग़ , प्रमाण का मूल्यांकन करने की क्षमता , गलत सिद्ध होने को अपमान ना समझना और सूचना का ज्ञानार्जन के लिए उपयोग करने की क्षमता। यदि ये गुण नहीं हैं तो निराशा ही मिलेगी, ज्ञान नहीं। मैं भविष्य में इन गुणों को विकसित करने की कुछ विधियों पर लिखूंगा , यद्यपि इस विषय में मुझे थोड़ा ही ज्ञान है, पर क्या नहीं करना चाहिये इसका मुझे अंदाजा हो गया है, क्योंकि मैं स्वयं काफी अंधे कुओं में गिर चूका हूँ।
ज्ञान एक अशुद्धता है
शायद ये वाक्य अर्थहीन लगेगा, किन्तु जैसे ही कोई ज्ञान मिलता है , शुद्ध अनुभव ज्ञान में बदल जाता है , अशुद्ध हो जाता है। शुद्ध अनुभव में कोई ज्ञान की मिलावट नहीं होती , उसको व्यवस्थित करने का , या समझने का प्रयास नहीं होता। यदि आपका आशय उसे जानना नहीं है तो ही वो शुद्ध रहता है।
आपको एक हराभरा वृक्ष दिखता है , यह एक अद्भुत अनुभव है, अस्तित्व के एक रूप की सुन्दर झलक , बस इतना ही है। जैसे ही आप जान जाते हैं कि वो एक वृक्ष है, यह अनुभव सिकुड़ जाता है, ज्ञान में बदल जाता है , भ्रष्ट हो जाता है। जैसे ही आप उसे "वृक्ष" का नाम देते हैं , वह एक वस्तु हो जाता है , वर्गीकरण और विश्लेषण से समझ लिया जाता है। चित्त की विभाजन की इस यंत्रव्यवस्था से निकलने के बाद अब वो अनुभव पहले जैसा नहीं रहता।
जितना अधिक हमारा ज्ञान होता है उतना हम वास्तविकता से दूर होते हैं , ज्ञान की बढ़ोत्तरी के साथ हम नकली होते जाते हैं। अंत में , इसको नष्ट करना पड़ता है , और तब हम ऐसी जगह पर पहुँचते हैं जहाँ हर एक अनुभव अपने मूल स्वरुप में दिखता है। यह ज्ञान का अंत है।
अज्ञान ज्ञान का रूप है
यह असंभव दिखता है , क्या ये दोनों विपरीतार्थी नहीं ? मैंने पाया है कि अज्ञानावस्था वास्तव में ज्ञान का आभाव नहीं है , यह एक विकार है जो आंशिक ज्ञान के मिलने पर होता है। ज्ञान के पूर्णाभाव के लिए मैं एक दूसरा शब्द प्रयोग करूँगा - निर्दोषिता या अबोधता। आंशिक ज्ञान संकट का लक्षण है , निर्दोषिता से भी बुरी अवस्था है। कम से कम जब कोई अबोध होता है , सानंद होता है , छोटे बच्चे जैसा। आंशिक ज्ञान दुःखों का कारण है।
तो अज्ञान की ये परिभाषा है की यह एक ऐसी अवस्था है जिसकी निशानी पर्याप्त ज्ञान का आभाव एवं आंशिक ज्ञान की उपस्थिति है , यह अवस्था असंतोषजनक कर्मों की ओर ले जाती है और परिणामतः दुखों का कारण है।
ज्ञानार्जन हमारा प्रथमोद्देश नहीं होना चाहिए , उद्देश्य, अज्ञान - जो की असत्य ज्ञान है , से छुटकारा होना चाहिए।
- वी वू वी
उदाहरण के लिए, यदि किसी व्यक्ति (क) को स्वर्ण के मूल्य का कोई ज्ञान नहीं है, जो "सामाजिक स्तर" बढ़ा देता है, या वो अमीरी क्या है यह भी नहीं जनता , तो वो सानंद अबोध है, इसके बारे में कुछ भी करने की उसकी कोई इच्छा नहीं, उस पर कोई दबाव नहीं , कोई दुःख नहीं। किन्तु किसी दिन जब वो किसी और व्यक्ति (ख) को स्वर्ण से लदा देखता है, और अनुभव लेता है कि कैसे सब ख को आदर प्रेम देते हैं , आसपास मंडराते हैं , और क को केवल साधारण या नीच दृष्टी से देखते हैं, क को अब ख की "सुखी" अवस्था का कारण स्वर्ण समझ आता है और अब उसकी नवनिर्मित "दुखी" अवस्था स्वर्णाभाव के कारण लगती है। क को आंशिक ज्ञान हो गया है कि स्वर्ण से सुख मिलता है। उसका जीवन नर्क हो जाता है, जोड़तोड़ या कठोर श्रम से वो स्वर्ण कमाने का प्रयास करता है , उसका दुःख (और उसके सम्बन्धियों का भी) इस वजह से और बढ़ जाता है। अब वो अबोध नहीं रहा अज्ञानी हो गया है।
एक दिन वो देखता है कि ख की हत्या कर दी गयी है और सारा स्वर्ण लूट लिया गया है। देखता है कि ख के संबंधी एवं मित्र आपस में लड़ मर रहें है और बची संपत्ति पर लार टपका रहें हैं। स्वर्णजनित सारा सुख खो गया है और अब स्थिति क से भी बद्तर है। अब क को कुछ और ज्ञानानुभव हो गए हैं और वो लालच के कर्मफल , संपत्ति के लाभालाभ , नकली रिश्ते जो इस तरह के लोगों के आसपास उग आते हैं, आदि को समझ जाता है। उसका ज्ञान अब सम्पूर्ण हो गया है , उसका गलत व्यवहार लोप हो जाता है , दुखांत होता है , ख़ुशी वापस आती है , और अब वो स्वर्ण के सारे पहलू अच्छे से जान जाता है। वो अब अबोध नहीं है, लेकिन न हि वह अज्ञानी है .... वो अब "प्रबुद्ध" है (कम से कम मानवीय मामलों के एक छोटे से पहलू के बारे में)। यह ज्ञान उनके भविष्य की प्रगति के लिए एक आधार बन जाएगा।
हमारी इस अनुभवों को आयोजित करने वाली विलक्षण क्षमता में एक प्रकार का दोष है। जब भी आंशिक ज्ञान होता है , हम आलसी हो जाते हैं और उस ज्ञान को हर तरह की उल्टीसीधी मान्यताओं से पूर्ण करने का प्रयास करते हैं। आवश्यक अनुभवों की प्रतिक्षा करने का या उनको पाने के यत्न करने का हममें धैर्य नहीं होता। शायद पर्याप्त रूचि , सक्षमतादि नहीं होती, या फिर दूसरी बातों का आनंद उठाने में व्यस्त रहते हैं , या उन मान्यताओं से सुरक्षा की अनुभूति मिलती है, वो अमोल हो जाती हैं, आसानी छूटती नहीं , और फिर वो जड़ हो जाती है , ज्ञान का रूप ले लेती हैं , अपनी कृत्रिमता छुपा लेती हैं। वे नए ज्ञान के लिए ढाल बन जाती हैं , द्वारपाल तैनात कर देती हैं जो वही अनुभव अंदर आने देते हैं जो उन मान्यताओं को बल देते हैं और उनको और ठोस बनाते हैं। द्वारपाल ठीक उस ज्ञान पर हमला करते हैं जो पुरानी मान्यताओं को उखाड़ने में सहायक है। ऐसा इन मान्यताओं का स्वाभाव है। मान्यता एक ऐसी अवधारणा है जो अपरोक्ष अनुभव पर आधारित नहीं होती। यह एक संरचना है जो ज्ञान का वेश धारण करने की कोशिश करती है, लेकिन खोखली होती है, उसमे आवश्यक अनुभव या ज्ञान का अभाव होता है। मान्यताएं न केवल किसी के ज्ञानकोश को , उसकी निर्दोषिता को भी भ्रष्ट कर देती हैं। यदि कोई अबोध है, तो भी उसमे ज्ञानार्जन की संभावना होती है, किन्तु जब कोई मान भर लेता है, उसका प्याला पहले ही भरा होता है, वहां कुछ और भरने की जगह नहीं बचती, ज्ञान के लिए भी नहीं। [८]
मान्यता, ज्ञान का एक सस्ता विकल्प है।
- सद्गुरु जग्गी वासुदेव
ध्यान दें कि प्रत्येक मान्यता या विश्वास अनिवार्य रूप से असत्य या हानिकारक नहीं होता। हो सकता है किसी दिन , जो भी आप मानते हो ठीक उसी का सही अनुभव मिल जाये। लेकिन जब तक आप उन्हें ज्ञान के विकल्प के रूप में ले रहे हैं, मात्र मान्यताओं या परिकल्पना के रूप में नहीं, तब तक वे आपकी प्रगति के पथ पर बाधायें है। कोई मान्यता तभी समस्या बनती है जब वो विश्वासी को या जनसामान्य को हानि पहुँचाती है। अज्ञानता या मान्यताओं से छुटकारा पाना अनिवार्य नहीं है, वे कोई प्राकृतिक नियमों द्वारा निषेध नहीं हैं, लेकिन अगर आप अपने पथ पर कुछ प्रगति चाहते हैं , तो ये अनिवार्य है कि आप उनका स्वाभाव पहचानें। [९]
यदि आपका जीवन पीड़ा, दुख और दर्द से भरा है, तो यह अज्ञान और मान्यताओं की उपस्थिति का एक निश्चित संकेत है। एक विशुद्ध रूप से निर्दोष व्यक्ति को भी दुःख भोगना पड़ता है, लेकिन उतना नहीं जितना एक अज्ञानी भोगता है। अबोधता से शुरुआत करना हमेशा अच्छा होता है , प्याला खाली रखें , मनोद्वार खुले रखें। जब आप कहते हैं - "मैं कुछ नहीं जानता", आप ज्ञानप्राप्ति की मुद्रा में आ जाते हैं और नए विचार, नए अनुभव और अपार ज्ञान के कई द्वार खुल जाते हैं। तो, यदि आपके किसी पथबिन्दु पर आपको लगे कि बुरी स्थिति में फंस गए हैं , तो वह वापस लौटने का सही समय है ...... अबोधता की गोद में।
टिप्पणियाँ:
[१] एक जाना पहचाना दर्शन - अद्वैत वेदांत।
[२] अगर आप सोच रहें हैं कि इन्द्रिय अनुभूतियाँ के अलावा और कौन सी अनुभूतियाँ हो सकती है , तो मैं केवल उन अनुभूतियों , जो साधारण जागृतावस्था में होती हैं (भौतिक जागतिक अनुभव)और जो दूसरी अवस्थाओं में पायी जाती हैं, जैसे स्वप्न (सुप्तावस्था में ) या कल्पनाएं , स्मृतियां या अभौतिकानुभव , इन में भेद कर रहा हूँ।
[३] कई नई अवधारणाएं यहाँ लिखी हैं , जो मैं अभी अपरिभाषित छोड़ रहा हूँ, लेकिन आम तौर पर स्वीकार अर्थ यहाँ काम करेंगें।
[४] ज्ञान की बहुत सारी परिभाषाएं हैं, उनमें से ज्यादातर मुझे वृतवत लगती हैं। यदि आपकी आगे जानने की रूचि है , ज्ञानमीमांसा पर किसी अच्छी किताब से शुरुआत करें।
[५] चीज़ों को कई मायनों में वर्गीकृत किया जा सकता है। यह वर्गीकरण ज्ञानाधार पर है। आप कह सकते हैं कि एक चौथा प्रकार भी होगा जिसके बारे में कोई सवाल भी नहीं पूछा जा सकता, लेकिन यह प्रकार कल्पना की सिर्फ एक उड़ान होगी।
[६] इस उदाहरण में, मैं यह नहीं कहता कि सभी शिक्षाएँ और पुस्तकों में लिखा हुआ सबकुछ असत्य है। यह निश्चित रूप से सही हो सकता है, और उनका अपरोक्ष अनुभव भी हो सकता है। हम शिक्षकों के बहुत आभारी हैं कि वे हम सभी के साथ अपने अनुभव बाँट रहें हैं। समस्या यह है कि वे उनके अनुभव हैं , और उनका अपना ज्ञान है , आपका नहीं है। जब तक आप स्वयं अनुभव नहीं कर लेते तब तक वह ज्ञान निराधार रहता है , सिद्धांत भर रहता है।
[७] ज्ञानमार्ग या ज्ञानयोग।
[८] मैं बहुत स्पष्ट रूप से ज्ञान और मान्यताओं के भेद को समझाने के लिए सद्गुरु जग्गी वासुदेव का आभारी हूँ।
[९] "मतजाल" और उनसे कैसे बचा जाए इन शिक्षाओं के लिए मैं थॉमस कैम्पबेल का आभारी हूँ।
[१०] जैसा की आपने देखा , अभी सब कुछ परिभाषित नहीं हुआ। सबकुछ इतनी बारीकी से परिभाषित करना आपको पागलपन लग सकता है , लेकिन मैं चाहता हूँ कि हम एक ही पृष्ठ पर रहे, ऐसा ना हो कि मैं कुछ लिखूं और आप कुछ और समझें। मैं विभिन्न दार्शनिकों का बहुत आभारी हूँ, जिन्होंने मुझे कुछ भी कहने से पहले सब कुछ परिभाषित करने की कला सिखाई है।
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